Thursday, February 5, 2015

पिता सोते नहीं

एक दिन
पहाड़ की गोद से मचलकर एक नदी फिसल कर भागी 
पर्वत मुस्कुराकर आवाज़ देता रहा 
नदी एक हिरनी की तरह कुलांच भरती रही


पहाड़ जागता हुआ सचेत खड़ा है एक पिता की तरह 

नदी मैदानों में सितोलिया खेल रही है 
घाटियों से गुज़रते हुए कोई अलबेली धुन गुनगुना रही है 
कभी बेसुध हो नाच रही है तो कभी शहरो से गप्पें हांक रही है 
कभी पलटकर पहाड़ को जीभ चिढ़ा रही है


पहाड़ बस मुस्कुराये जाता है

एक नन्ही बिटिया को पिता की ऊँगली थामे मेले में घूमते देखा था आसमान ने 
और चाँद ने बलाएँ लेकर दुआएं बिखेरी थीं अंतरिक्ष में
नदी की दायीं बांह में बंधा है पहाड़ी मिटटी का तावीज़
और बालों में टँकी है एक मेले से खरीदी हेयरपिन


नदिया दौड़े जाती है आँखें मीचे 
अपने किनारों के कांधों पर चढ़कर 
और रात को 
थक कर सो जाती है सीने पर दोनों हाथ समेटे


पहाड़ सदियों से सोया नहीं है 
उसके बाएं हाथ की ऊँगली में अटका है 
नदी की फ्रिल वाली फ्रॉक का रेशमी बेल्ट


पहाड़ मोह में नहीं , पुत्री के प्रेम में है
आज़ादी उसका नदी को दिया सबसे बड़ा उपहार है


पिता की गोद से फिसलकर भी 
कौन बिटिया ओझल होती है भला 
अगर सिर्फ आँखें बंद कर लेना सोना नहीं तो 
पिता कभी सोते नहीं


बिटिया को देते हैं दो सफ़ेद पंख 
और बस करते हैं परवाह आखिरी सांस तक

..................................(जागते पहाड़ , बहती नदिया )