Tuesday, April 2, 2013

सिर्फ और सिर्फ प्रेम


कुछ लोग प्रेम रचते हैं ...प्रेम की कानी ऊँगली पकड़कर जीवन की नदी की मंझधार बीच चलते रहते हैं! वो एक ऐसी ही कवियित्री थी! लोग कहते थे , वो प्रेम पर कमाल लिखती थी! वो कहती थी प्रेम उससे कमाल लिखवा लेता है! उसके कैनवास पर प्रेम की विराट पेंटिंग सजी हुई थी! सामने ट्रे में न जाने कितने रंग सजे रहते ..मगर वो केवल प्रेम के रंग में कूची डुबोती और रंग देती सारा आकाश! जब कोई नज़्म उसके दिल से निकलकर कागज़ पे पनाह पाती तो पढने वाले की रूह प्रेम से मालामाल हो जाती!

समय सरकते सरकते उस मुहाने पे जा पहुंचा ,जिसके बाद सिर्फ युद्ध फैला पड़ा था दूर दूर तक! अंतहीन ..ओर छोर रहित युद्ध! लोगों ने नज्में दराजों में बंद कर दीं और नेजे ,भाले और तलवारें अपने कंधों पे सजा लिए! प्रेम का रंग छिटक कर न जाने कहाँ दूर जा गिरा था! क्रान्ति के शोर में मुहब्बत की बारीक सी मुरकी खामोश हो गयी! वीरों का हौसला बढाने कवियों ने क्रान्ति पर कलम चलानी शुरू कर दी! चारों और वीर रस की धार बह चली!

मगर वो अभी भी प्रेम रच रही थी! सिर्फ और सिर्फ प्रेम! अब उसकी नज्में कोई न पढता! मगर वो अपने पागलपन में डूबी कागजों पे मुहब्बत उलीचती जा रही थी! लोगों ने समझाया . " समय की मांग है कि अब तुम जोश भरी नज्में लिखो! " वो सर ऊपर उठाकर देखती और प्रेम की एक बूँद कागज़ पर गिरा देती! जब लोग उसे धिक्कार कर चले जाते तो वो अपनी ताज़ा लिखी नज़्म से कहती " वक्त के इस दौर को तुम्हारी सबसे ज्यादा ज़रूरत है "

न जाने कितने लोग मरे ...कितनों के घर काले विलाप से रंग गए! सैनिक दिन भर युद्ध करते और स्याह रातों में अपनी माशूकाओं के आये ख़त सीने पर रखकर सो जाते! उन रातों को वीर रस की नहीं सिर्फ प्रेम के रस की दरकार होती!

वक्त गवाह है .... उस कवियित्री की नज्मों ने सिर्फ जगह बदली थी! जो नज्में कभी उन सैनिकों ने अपनी माशूकाओं को अपने चुम्बनों में लपेटकर सौंपी थीं ,अब वे नज्में सैनिकों की माशूकाएं ख़त में लपेटकर पहुंचा रही थीं! प्रेम रुका नहीं था, मरा नहीं था और कहीं खोया भी नहीं था ...लगातार बह रहा था और सैनिकों के लहू से तपते जिस्मों पर ताज़ी ओस की बूंदों की तरह बरस रहा था!

सुन रहे हो ओ प्रेम ... " जब सबसे भयानक और सबसे बुरा दौर होता है तब तुम्हारी ज़रूरत भी सबसे ज्यादा होती है "

7 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

निर्भर जिस पर सबसे ज़्यादा , तपता दुख वहीं से आया।

सागर said...

एक जवाब ये भी हो सकता है कि 'मेरी मर्जी' और ये सही भी है... फिर भी जान्ने का दिल हुआ कि यहाँ इतनी कम क्यूँ हैं ?

मन्टू कुमार said...

Lajawab..bahut hi umda likha h aapne...
Prem ki darkaar har daur me bni rhe,zindagi ko bhi yahi talash hai..

Sadar

Manoj Saxena said...

सही कहा आपने पल्लवी जी …... आज हमें सबसे ज्यादा इस प्रेम की ही ज़रुरत है ....... आज जब हर तरफ नफ़रत का बाज़ार गर्म है ..... इंसान ही इंसान का दुश्मन बना है ..... तब यह प्रेम ही है जो सही राह दिखा सकता है ...... बहुत उम्दा लिखा आपने .... एक एक शब्द छूता है दिल को ..... काफी समय से आपकी रचना की प्रतीछा थी ..... आखिरकार इंतज़ार समाप्त हुआ .... अपने व्यस्त कार्यक्रम से समय निकाल कर लिखती रहा करिए ..... आपके प्रशंसकों को इंतज़ार रहता है आपकी रचनाओं का ......

कालीपद "प्रसाद" said...

" जब सबसे भयानक और सबसे बुरा दौर होता है तब तुम्हारी ज़रूरत भी सबसे ज्यादा होती है "
-यही प्रेम की अपेक्षाएं -उम्दा अभिव्यक्ति !

अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
latest post'वनफूल'

Pooja Priyamvada said...

bahut hi sundar shabdon ka chayan ek sundar anubhav ,anubhuti ke liye !

ब्लॉग बुलेटिन said...

पिछले २ सालों की तरह इस साल भी ब्लॉग बुलेटिन पर रश्मि प्रभा जी प्रस्तुत कर रही है अवलोकन २०१३ !!
कई भागो में छपने वाली इस ख़ास बुलेटिन के अंतर्गत आपको सन २०१३ की कुछ चुनिन्दा पोस्टो को दोबारा पढने का मौका मिलेगा !
ब्लॉग बुलेटिन के इस खास संस्करण के अंतर्गत आज की बुलेटिन प्रतिभाओं की कमी नहीं (20) मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !