Tuesday, June 1, 2010

कुछ बहके बहके से अल्फाज़....जाने किसके लिए


वो खामोश नज्में कहता था मेरे लिए
मैं बदन के रोम रोम से सुना करती थी

वो अपनी आँखों से सहलाता था मुझे
मैं घूँट घूँट उसके इश्क को पिया करती थी

वो कुछ अधूरी सी इबारत लिख गया था मेरी धडकनों पर
मैंने उन्हें अपना नाम पता बनाकर पूरा किया था

वो किसी लैला की बात किया करता था
मैंने लैला को अपने अन्दर सुलगते देखा था एक रोज़

एक रात उसने मेरी कुंवारी रूह को समेटा था
बाहर बरामदे में मोगरा ओस से भीग भीग गया था

वो एक रोज़ टांगा गया था मज़हब की सलीब पर
और सदियों से वो मेरे सीने पर क्रॉस बनकर झूल रहा है