Saturday, March 27, 2010

कई खूबसूरत सुबहें समेट रखी हैं मैंने.....

आहा...एक और बेह खूबसूरत सुबह! चेहरे पे मुस्कराहट वही बरसों पुरानी पर वजह हर रोज़ नयी! रोज़ की तरह आज भी निकली हूँ सुबह सैर करने.....पार्क की एक बैंच पर बैठती हूँ योगा करने पर....मन नहीं लगता! आज मन कहीं और अटका हुआ है.....एक क्रिकेट बॉल में ! पार्क में दो जगह क्रिकेट मैच चल रहा है! एक जगह १४ -१५ साल की उम्र के बच्चे खेल रहे हैं , दूसरी जगह ९-१० साल के बच्चे खेल रहे हैं! आँखें कभी इस तरफ जाती हैं तो कभी दूसरी तरफ! क्या करूँ...बहुत मन हो रहा है बैटिंग करने का! सोचती हूँ...काहे को इत्ती बड़ी हो गयी! क्या बिगड़ जाता इस भगवान का अगर इस दुनिया में एक लड़की बड़ी नहीं होती?


सिक्सर........अचानक जोर का शोर उठा है छोटे बच्चों वाले ग्रुप से! भाड़ में गया योगा....थोड़ी देर खेल ही देखती हूँ इनका! उठकर चल देती हूँ.....सामने एक सबसे छोटा बच्चा दिखाई दे रहा है....अपना सर झटक कर बौलिंग करने दौड़ पड़ा है.....छुटका तेज़ बॉल डालता है!
सामने वाला आउट हो गया है....अपना बैट लेकर जा रहा है! यही सही मौका है....कूद पड़ो बेटा मैदान में!मैं बीच में ही उसे रोकती हूँ.." मुझे खिलाओगे थोड़ी देर?" वो सबकी तरफ देखता है फिर कहता है " हाँ हाँ...आ जाओ , क्या करोगी?" मैं तडाक से कहती हूँ " बैटिंग..."
ठीक है कर लो.....अब उसका छोटा सा बैट मेरे हाथों में आ गया है! एक लड़का थोडा नाखुश है...शायद उसी का टर्न था बैटिंग का! मैं बैटिंग करने खड़ी होती हूँ.....बैट को ज़मीन पर ठोकती हूँ! "बॉल ज़रा धीरे डालना....." मैं पहली बॉल पर आउट नहीं होना चाहती हूँ! बौलर बहुत क्यूट है....धीरे से टप्पे वाली बॉल डाली है उसने. मैं खुश हूँ....पक्का baundry पार करा दूंगी ! बॉल करीब आती है...बैट टकराता है और बॉल ऊपर उठ जाती है! पर वो छुटका बड़ी आसानी से कैच ले लेता है....उसने फिर अपना सर झटका है! अरे यार....आउट हो गयी! छुटका हंस रहा है! ठीक है बैट एक लड़के को थमाकर जाने लगती हूँ....तभी एक आवाज़ आती है " दीदी...फील्डिंग भी करनी पड़ती है!" देखती हूँ...वही छुटका था! " छोकरा चालू है.....मैं सोचती हूँ ! हाँ हाँ ...क्यों नहीं! मैं फील्डिंग करने खड़ी हो गयी हूँ....फिर बौलिंग का भी नंबर आया ! आधे घंटे बाद मेरी सबसे दोस्ती हो गयी है! और मुझे लग रहा है....जैसे मैं ही उनकी लीडर हूँ! बच्चे मेरी बात मान रहे हैं! उन्हें लग रहा है...मुझे क्रिकेट अच्छे से आता है...!

खेल ख़तम होता है....मैं घर वापस आती हूँ! धोबन आकर पूछती है " क्या बात है दीदी....अकेले अकेले हंस रही हो"?
" बस ऐसे ही ...सब कुछ अच्छा अच्छा लग रहा है" मैं जवाब देती हूँ और फिर मुस्कुराने लगती हूँ! मैंने ऊपर आसमान में ठेंगा दिखाया है " तुम बुड्ढा किये बिना नहीं मानोगे , कर लो पर मेरा क्या बिगाड़ लोगे"

Thursday, March 11, 2010

एक सर्द ख़ामोशी....अंतहीन...


चारों तरफ एक बेचैन सी ख़ामोशी पसरी हुई है...! मुझे डर लगने लगा है इस सन्नाटे से! बार बार पसीना पोंछता हूँ! कोई दूर ले जाओ इस ख़ामोशी को....जो कानों के अन्दर से घुसकर मेरे पूरे शरीर में रेंगने लगी है! मेरे कान तरस गए हैं शोर को! इस सन्नाटे में मुझे मेरा ज़मीर की आवाज़ बहुत साफ़ सुनाई देती हैं! मैं नहीं सुनना चाहता हूँ इसकी बकवास! झिंझोड़े डाल रहा है कोई मेरे अन्दर से मुझको! उफ़ कितना सर्द होता है ये सन्नाटा....मेरी रगों में खून जमा जा रहा है!

बेबसी में मैं देख रहा हूँ इधर उधर....हर आने जाने वाले से बात करने की गुहार करता हूँ! सब मुझे देखते हैं...उनके हिलते हुए होंठ दिखाई पड़ते हैं मुझे,..मेरे कानों को क्यों नहीं सुनाई देते! मुझ तक आने के पहले ही बर्फ बनकर ज़मीन पर गिरते जाते हैं! चारों और बर्फ ही बर्फ फैलती जाती है!

..कौन सी होगी वो आंच जो इस सर्द ख़ामोशी को पिघला देगी....क्या एक शापित की तरह मुझे जन्मों तक इंतज़ार करना होगा! दोनों हथेलियों को आपस में जोर से रगड़ता हूँ....बदले में मुझे एक चीखती हुई हंसी सुनाई देती है! ख़ामोशी हंस रही है मुझ पर!हंसी की आवाज़ तेज़ होती जा रही है....और तेज़! रेलवे स्टेशन की और भागता हूँ मैं बदहवास सा! ट्रेन ने सीटी दी है...मैं पास जाता हूँ उसे सुनने! पर सीटी में भी एक भयानक अट्टहास सुनाई देता है! मैं हार चूका हूँ! घटने के बल बैठकर मौत को बुला रहा हूँ! रोना चाहता हूँ जार जार मगर आंसू बर्फ बन कर आँखों के अन्दर ही कहीं चुभ रहे हैं!

पता नहीं कैसे मैं खुद को कब्रिस्तान में बैठा पाता हूँ! पीछे मुड़कर देखता हूँ....ख़ामोशी जलती निगाहों से देखती ठीक मेरे पीछे खड़ी है! मैं हाथ जोड़ रहा हूँ...अपना सर ज़मीन पर पटक रहा हूँ पागलों की तरह! ख़ामोशी का अक्स बदलता है...एक परछाई उभर रही है जो बहुत अजीब निगाहों से मुझे देख रही है! एक सुकून है उन निगाहों में...!

ये सुकून भरी निगाहें इतनी जानी पहचानी क्यों लगती हैं मुझको.....पहले कहाँ देखा है इन्हें? अचानक सब दिखाई पड़ने लगता है मुझको......कभी ये सुकून मेरी ही निगाहों में था और मेरी जगह हाथ जोडती, सर पटकती मेरे जवाब का इंतज़ार करती वो....! थककर खामोश हो गयी थी !

वही ख़ामोशी चीरे दे रही है मुझे..... दीमक की तरह कुतरे जा रही है! आह...वो कौन सी ऊष्मा होगी जो इस सन्नाटे को पिघला कर मेरे जिस्म से बाहर निकाल देगी! शायद पछतावे की....हाँ यकीनन! पर ख़ामोशी के इस हिम खंड को पिघलने में शायद सदियाँ लग जायेंगी........