Wednesday, July 30, 2008

किस्सा -ए-होस्टल

लोग कहते हैं की होस्टल लाइफ के अपने आनंद होते हैं...और सही भी है अगर कॉलेज का होस्टल हो और दोस्त यारों के साथ जीवन के वो हसीन साल गुजारे जाएँ तो वे पल अविस्मरनीय बन जाते हैं!हमारे लिए भी अविस्मरनीय ही हैं वो तीन दिन!

पहला अनुभव- एम.ए. करने के बाद पी.एस.सी. परीक्षा का जब प्रीलिम्स निकाल लिया तो हम दोनों बहनों को मेन्स की तयारी के लिए पहली बार घर से दूर इंदौर कोचिंग के लिए भेजा गया! इसके पहले हम कभी अकेले नहीं रहे थे! तय हुआ की वहाँ गर्ल्स होस्टल में रखा जायेगा...हम दोनों भारी प्रसन्न क्योकी बचपन से ही न जाने क्यों होस्टल में रहने की बड़ी लालसा थी! अब पूरी होने जा रही थी!इंदौर में बड़े गणपति मंदिर के पास गंगवाल होस्टल है...वहीं हम दोनों रहने पहुंचे! दूसरी मंजिल पर एक कमरा हमें प्रदान किया गया जिसमे पहले से ही दो लडकियां और मौजूद थीं! दोनों पी.एम.टी. की तैयारी कर रही थीं...उम्र में काफी छोटी थीं हमसे ! एक कमरे में चार चार लडकियां...कैसे पढ़ेंगी? और उनमे से भी हम दो भयंकर बातूनी...हम सोच रहे थे की ये दोनों थोड़े शांत स्वभाव की निकल आयें तो पार पड़े वरना तो चारों का भविष्य हमें साफ़ नज़र आ रहा था! हमने डिसाइड किया की हम इन्हें ज्यादा भाव नहीं देंगे! पहला दिन तो कुछ यूं निकला कि हम लोग आपस में एक दूसरे को देखकर फर्जी स्माइल पास करते रहे! वो बड़ा समझ के आप आप करें और हम भी सभ्यता के मारे आप आप करें! अपने आप को ज्यादा सभ्य दिखाने के चक्कर में पूरा दिन खुल के हंस भी नहीं पाए! वहाँ की वार्डन बहुत तोप चीज़ थी!घर में होते तो अब तक दस बार नक़ल उतर गयी होती! पर वहाँ गंभीरता का चोल ओढे ओढे घबराहट सी होने लगी! जब शाम को दोनों लडकियां मार्केट तक गयीं तब हम दोनों ने आधा घंटा जम के ठहाके लगाये! उनके वापस आते ही फिर से घुन्ने बन गए! ठीक आठ बजे एक जोरदार किर्र की आवाज हुई और दोनों लड़कियों ने एक एक डिब्बी अपने हाथ में उठा ली और चलने लगीं...जाते जाते मुड़कर बोलीं " डिनर टाइम हो गया है..आप लोग भी आ जाइये नीचे डायनिंग हॉल में"
" अच्छा..आते हैं"
हम भी पहुंचे डिनर के लिए...देखा तो सभी लड़कियों के पास दो दो डिब्बियां थीं!मैंने बहन से कहा " अपन भी कल प्लास्टिक की डिब्बियां खरीद लायेंगे"
" पहले देख तो ले..क्या है इनमे" बहन ने फुसफुसा कर कहा!
खाना आया...डिब्बियां खुलीं! एक डिब्बी में घी,एक डिब्बी में अचार! देखते ही देखते अचार के आदान प्रदान होने लगा! और गप्पों और ठहाकों से हॉल गूँज उठा! मोटी मोटी रोटियाँ ,आलू की रसेदार सब्जी जिसमे किसी किसी की कटोरी में दो से ज्यादा आलू के टुकड़े भी थे! देखकर प्लास्टिक की डिब्बियों की उपयोगिता समझ में आ गयी! खैर खाना खाकर ऊपर अपने रूम में पहुंचे! बारह बजे तक पढाई की...दोनों लडकियां भी पढ़ रही थीं! बीच बीच में खुस फुसा कर बात करतीं! हमें लगा हमारे बारे में बात कर रही हैं!बड़ा बुरा लगा...अरे इतना भी सबर नहीं है जब हम कोचिंग जाएँ तब बुराई कर लें!बुराई करने की तमीज भी नहीं है!हमने खुसफुसा कर ही निश्चय किया की अगर ये ऐसा करेंगी तो हम भी इन्हें देखकर ऐसे ही फुसफुसायेंगे! अब अगली मुसीबत एक और आई...हमें आये जोर की नींद और हमारी दोनों रूम पार्टनर रात भर पढाई करने वालों में से थीं! एक बोली " हम सुबह चार बजे सोयेंगे तब लाईट बंद कर देंगे"
" रहने देना जी..हमने अपनी घडी में चार बजे का अलार्म लगाया है...हम चार बजे उठकर पढ़ते हैं" बहन ने जवाब दिया!
" क्यों रे...अपन कब चार बजे उठकर पढ़ते हैं" मैं बहन के कान मैं फुसफुसाई!
" अरे...जब इनकी नींद हराम होगी तब अकल ठिकाने आएगी इनकी!"
जैसे तैसे चादर आँखों पर डालकर सोने की कोशिश की! मगर दोनों लड़कियों की खुसुर फुसुर बदस्तूर जारी थी!
" देख तो...ये कितनी बुराई कर रही हैं अपनी" बहन ने कान में कहा!
" कुत्ता कुता भौंक रहे ,राजा राजा सुन रहे" हमने बहन को सांत्वना दी!

जैसे तैसे रात कटी....सुबह से एक नयी मुसीबत! बाथरूम जाने के लिए लम्बी कतार लगी थी!बाहर एक एक वाश बेसिन पर चार चार लडकियां ब्रश कर रही थीं!बुरे फंसे.....हम दोनों ने एक दूसरे को देखा!
" अपन रात को ही ब्रश कर लिया करें तो?" मैंने प्रस्ताव रखा!
" बकवास बंद कर...अपनी बारी का इंतज़ार कर चुपचाप" बहन ने आँख दिखाई!

एक घंटे में हम नहा धोकर फुर्सत हुए! शाम को कोचिंग से वापस लौटे! अब तक उन दोनों लड़कियों से थोडी दोस्ती हो गयी थी! हम लोगों ने आपस में करीब एक घंटा बातें कीं! रात होते ही फिर कल वाला नाटक..." हम तो चार बजे तक पढेंगे"
हम फिर से आँखों पर चादर डाल कर सो गए! बीच बीच में उनकी लगातार खुसुर फुसुर सुनाई देती रही! इस बार बहन ने सोने का नाटक करते हुए ही कान लगाकर सुना...और खुश होकर बोली " अपन खामखाँ इन पर शक कर रहे थे...ये अपनी बुराई नहीं करती हैं.., इनके बॉय फ्रेंड हैं उनकी बातें करती हैं!"
आहा...बड़ी तसल्ली मिली वरना कब तक " कुत्ता कुत्ता भौंक रहे राजा राजा सुन रहे" कहकर खुद को बहलाते! मन हुआ की इनसे कह दें " देवियों..अपने राजकुमारों की बातें करने के लिए तुम्हे लाईट जलाने की क्या ज़रुरत है! और पढाई का ड्रामा करने की भी आवश्यकता नहीं...हम तुम्हारी माएं नहीं हैं!तुम पी.एम.टी. में पास नहीं होगी तो हमारी सेहत में आधे ग्राम की भी कमी नहीं होगी!"मगर सोचा की थोडी और बेतकल्लुफी हो जाये तब कहेंगे वरना बुरा वुरा मान बैठें बेकार में!

इसी प्रकार तीन दिन गुज़र गए...हम आँख पर चादर डालकर सोते रहे...उनकी पी.एम.टी. की पढाई भी खुसफुसा कर चलती रही, हम भी डिनर पर जाते समय दोनों डिब्बियां ले जाने लगे!
चौथे दिन मम्मी आयीं..और हमने फैसला सुना दिया की अब हम होस्टल में नहीं रहेंगे! अलग रूम लेकर रहेंगे! मम्मी मान गयीं...हमने कोचिंग की ही एक लड़की के साथ रूम शेयर कर लिया! तो ये थे हमारे तीन दिन होस्टल के! कमरा लेकर रहने के अपने अलग किस्से हैं! फिलहाल ये हुआ होस्टल का पहला अनुभव! दूसरा अनुभव अगली पोस्ट में...

Monday, July 28, 2008

'ए खुदा...बचपन को तो बख्श


रात के वीराने में उसकी किलकारी
जैसे किसी ने साँझ ढले
राग यमन छेड़ दिया हो
उसकी वो नन्ही-नन्ही अधखुली मुट्ठियाँ
नींद में मुस्कुराते होंठ
बार-बार बनता-बिगड़ता चेहरा
मोहपाश में बाँध रहे थे

विडम्बना यह कि वो फरिश्ता
नरम बिछौना, पालना या
माँ की गोद में नहीं
बल्कि कचरे के ढेर पर सो रहा था
इंसानों को कहाँ फुरसत थी,
उसकी रखवाली
मोहल्ले का 'मोती' कर रहा था

ए खुदा!
हम बड़े ही बहुत हैं
तेरे इम्तिहानों से गुजरने के लिए
कम से कम बचपन को तो बख्श...

Thursday, July 24, 2008

जय हो आंग्ल भाषा की

जय हो आंग्लभाषा की जिसको आज की ये पोस्ट समर्पित है!अँगरेज़ चले गए,अंग्रेजी छोड़ गए " एक बहुत ही प्रचलित कहावत है जिसे अंग्रेजी से खफा हर शख्स कभी न कभी इस्तेमाल ज़रूर करता है!दरअसल अंग्रेजी से नफरत दर्शाने के लिए इससे सुन्दर कोई कहावत नहीं बनी!चाहे स्वदेसी आन्दोलन वाले हों ,चाहे ग्रामर के सताए हुए हों,चाहे अंग्रेजी छोड़ हर विषय में पास होने वाले हों...ऐसा मुंह बनाकर ये कहावत कहते हैं मानो इनका बस चले तो अभी झोले में भर के अंग्रेजों के देस में पटक आयें!

शुरुआत करते हैं इस अंग्रेजी पुराण की हमारे स्कूल से....जहां इंग्लिश का पीरियड तो लगता था लेकिन कहना और लिखना "आंग्लभाषा"पड़ता था! इंग्लिश कहने से भारतीय संस्कृति का क्षय होता था! जब हम पढाई करते थे तब गिना चुना एकाध इंग्लिश मीडियम स्कूल हुआ करते थे....उसमे और हमारे स्कूलों में मात्र इतना ही अंतर होता था की वहाँ के बच्चे "may i go to toilet sir" और " may i come in sir" बोला करते थे जबकि हम सब " क्या हम अन्दर आ सकते हैं आचार्य जी" उच्चारते थे! बाकी तो कोई अंतर कभी समझ नहीं आया! इंग्लिश बोलनी न हमें आती थी न उन्हें आती थी! हम खुश थे क्योकी हम तो हिंदी मीडियम में पढ़ते थे इसलिए इंग्लिश बोलना आना कोई ज़रूरी नहीं था मगर न वो खुश थे न उनके मां बाप क्योकी जहां हमारे स्कूल की फीस ८० रुपये थी (तांगा शुल्क सहित) ,वहीं उन्हें १०० रुपये देने पड़ते थे( तांगा अलग)!

ऐसी ऐसी भी माएं थीं या सही कहूं तो आज भी हैं जो घर में बच्चों को ठेठ देसी अंदाज़ में लाल भकूका होकर डांटती थीं लेकिन मेहमान के सामने " नो बेटे, घर के अन्दर प्ले मत करिए" या " बेटे,नोजी साफ़ करिए" कहती थीं वो भी चेहरे पर अत्यंत सौम्य भाव लाकर ! बेटेराम धन्य हो गए.. दिन भर तू-तड़ाक करने वाली माता अचानक सम्मान देने लगी!

एक बार एक नए आचार्य जी स्कूल में आये अंग्रेजी पढाने...चूंकि वो अंग्रेजी के मास्टर थे तो दबदबा भी अन्य अध्यापकों से थोडा अलग था! अंग्रेजी जानने का गौरव चेहरे से छलका पड़ता था! स्कूल में सभी आचार्यजियों को धोती कुरता पहनना अनिवार्य था...सब कोई मजे से धोती कुरता पहनकर साइकल पर आते! ये भी आते मगर फर्क इतना होता की ये पेंट शर्ट पहनकर आते और एक बेग में गणवेश रखकर लाते! स्कूल में आकर धोती कुरता धारण कर लेते! जाते वक्त फिर पेंट शर्ट चढा लेते! वो आचार्य जी कम " सर" ज्यादा लगते थे ! हम इनसे इतने ज्यादा प्रभावित थे की इनके द्वारा पढाये गए " neighbour" को "नाइघबोर" ही रटते रहे! आचार्य जी ने जो कह दिया सो पत्थर की लकीर! अगले साल एक नया लड़का क्लास में आया...उसने नाइघबोर की जगह " नेबर" कह दिया! ऐसा मज़ाक उड़ाया पूरी क्लास ने कि बेचारा मान बैठा कि वही गलत है!दो इन बाद वो भी "नाइघबोर" कहने लगा! सत्य झुक गया भले ही बाद में कभी जीत गया हो!इसी तरह सिक्स्थ क्लास में अंग्रेजी के पाठों में दो परिवारों का ज़िक्र होता था...एक मिस्टर दास ,जिनके बच्चे मोहन और रीता थे! एक मिस्टर स्मिथ का परिवार जिनके बच्चे जॉन और मेरी थे! जॉन की स्पेलिंग "john" लिखी जाती थी और मोहन की " mohan" ! हमारे आचार्य जी मोहन और जोहन पढाया करते थे! लगभग तीन साल तक हम जोहन ही कहते रहे!


एक और सर थे जो जबरदस्ती हमें टूशन पढाने के लिए लगाये गए थे! उनका अंग्रेजी ज्ञान हमारे गणित ज्ञान से भी कमज़ोर था! हमने उन्हें भगाने के सारे प्रयत्न किये...मैं और मेरी बहन उन्हें ऊपर से गद्दी डालकर टूटा सोफा बैठने के लिए देते, चाय में नमक डालकर भी पिलाई, और कभी होमवर्क तो अपने को करना ही नहीं था! लेकिन बेचारे बहुत सीधे थे...और गज़ब का जिगर कि उस टूटे सोफे पर चौथाई वजन रखकर एक घंटा पढाते रहे! कभी उफ़ तक नहीं की! हम बाद में चैक करते तो ज़रा सा बैठते ही अन्दर धंस जाते! लेकिन नमन है इस आंग्लभाषा को जो काम टूटा सोफा और नमक वाली चाय नहीं कर पायी वो इसने कुछ ही दिनों में कर दिया! हमने पहले दिन ही ताड़ लिया कि कमज़ोर कड़ी अपने हाथ लग गयी...वो मैथ्स कि किताब खोलते और हम अंग्रेजी की! उनसे कहते" सर..पूरा लैसन पढ़ के ट्रांसलेट कर दीजिये" मरते क्या न करते..उन्हें पूरे विषय पढाने के लिए लगाया गया था! सबसे कठिन चैप्टर छांटकर देते...जैसे ही पढने बैठते दो चार लाइन तो ठीक पर जैसे ही कोई कठिन वर्ड आ जाता तो उच्चारण नहीं कर पते और अपने गले को बड़े अजीब टाइप से खंखार कर साफ़ करते कि कठिन वर्ड उसी में उच्चारित हो जाता! एक लैसन में करीब दस-बीस बार उनका गला खराब होता था! हम भी ठहरे पक्के बेशरम...उनके गला साफ़ करते ही टोक देते " सर...इस वर्ड को कैसे बोलेंगे,दुबारा बता दीजिये" बेचारे अगले दस दिन में ही अन्य कार्यों में व्यस्त होने का बहाना बनाकर ट्यूशन छोड़ कर चले गए!

इस आंग्लभाषा की एक और खासियत है...वज्र मूर्ख को भी मूरख कहने पर लाल पीला हो जायेगा! "डफर" कह दो, खी खी कर के हंस देगा!गालियाँ भी इंग्लिश के वस्त्र धारण कर अपनी गरिमा को प्राप्त कर लेती हैं!सो बस यही कह सकते हैं कि " जय हो आंग्ल भाषा की"

Tuesday, July 22, 2008

मेरी असफलताएं

आज मैं सिर्फ अपनी असफलताओं के बारे में बात करना चाहती हूँ! अमूमन कोई मुझसे मेरे बारे में पूछता है तो मैं बड़े गर्व से बचपन से लेकर अब तक की सफलताओं का ज़िक्र किया करती हूँ ...जिसमे मैंने क्या क्या तीर मारे स्टाइल में अपनी जीवन गाथा सुनाती हूँ और इस कथा में कहीं भी मेरी कमियों का, गलतियों का या असफलताओं का ज़िक्र तक नहीं होता मानो ये सब मेरे जीवन का हिस्सा ही न हों....हम खुद को बहादुर कहते हैं लेकिन अपनी विफलताओं के बारे में बताने से डरते हैं! अभी दो दिन पहले ही दैनिक भास्कर में एन.रघुरामन का एक लेख पढ़ा जो सिर्फ असफलताओं के बारे में था..पढ़कर एहसास हुआ की मैंने भी कभी किसी को नहीं बताया की मैं कहाँ कहाँ जिंदगी की पायदान से फिसली हूँ!
जब भी कभी किसी ने मुझसे पूछा कि क्या आप थ्रू आउट फर्स्ट क्लास रही हैं... मैंने तत्काल जवाब दिया " जी हाँ...कभी सेकंड डिविज़न नहीं आई" जबकि ये सरासर गलत है! एक बार मेरी सेकंड डिविज़न आई थी! जब मैं tenth क्लास में थी तब साल भर केवल मस्ती में निकाला, परीक्षा टाइम में जितना पढ़ सकी पढ़ी!जब रिजल्ट आया तो ५९ प्रतिशत बना था! मेरे लिए अप्रत्याशित और सदमे भरा था क्योकि हमेशा से क्लास में फर्स्ट थ्री में शामिल होती आई थी! जिनकी सेकंड डिविज़न आती थी उन्हें हेय द्रष्टि से देखा करती थी! अब मैं खुद उसी जगह पर खड़ी थी!मम्मी पापा को भी बहुत दुःख हुआ,कहा तो ज्यादा कुछ नहीं उन्होंने लेकिन न कहते हुए भी दुखी चेहरे ने बहुत कुछ कह दिया! उसके बाद अपनी दसवी कि मार्कशीट कही भी लगाने से बचती रही, कोई पूछता तो फर्स्ट डिविज़न ही बताती रही! हांलाकि उसके बाद कभी सेकंड डिविज़न नहीं आया लेकिन ये बात मन को हमेशा कचोटती रही कि काश उस साल ढंग से पढाई की होती तो ये धब्बा नहीं लगता!और हाँ...एक और झूठ ,अगर कभी ये बताना ही पड़ जाता कि दसवी में मेरी सेकंड डिविज़न थी तो साथ में ये ज़रूर जोड़ देती थी कि उस साल परीक्षा के समय मेरे दादा जी का देहांत हुआ था तो पढ़ नहीं पायी थी! लेकिन आज कोई झूठ नहीं...मैं स्वीकार करती हूँ कि मेरी असफलता की पूरी जिम्मेदारी सिर्फ मेरी थी किसी और की नहीं!

दूसरा वाकया ...बचपन से ही मेरा सपना डॉक्टर बनने का था और इसलिए बारहवी क्लास के बाद पी.एम.टी. की तेयारी के लिए एक साल ड्रॉप दिया , जितना पढाई हो सकी उतनी की! लेकिन जितनी भी की वो एक्साम में पास होने के लिए नाकाफी थी! सभी को मुझसे बहुत उम्मीदें थी!साल ख़त्म हुआ और परीक्षा का दिन आ गया! पहला पेपर फिजिक्स का था जो कि मेरा सबसे अच्छा तैयार था!पेपर ठीक ठाक गया! केवल ठीक ठाक न कि बेहतरीन! पेपर देने के बाद समझ आ गया था कि आगे के पेपरों में क्या होने वाला था! मैं बहुत घबराई हुई थी! सिलेक्शन नहीं हो पायेगा उसकी इतनी घबराहट नहीं थी जितनी इस बात की थी कि लोग क्या कहेंगे? इसी घबराहट में रात को मेरी तबियत बिगड़ गयी...अस्पताल जाना पड़ा ! और सुबह का पेपर मैं नहीं दे सकी! जब एक पेपर छूट गया तो आगे के पेपर्स देने का कोई मतलब नहीं था इसलिए मम्मी के बार बार कहने पर भी मैंने पेपर नहीं दिए! मम्मी का कहना था कि भले ही सिलेक्शन न ही लेकिन तुम्हे खुद अंदाजा हो जाएगा कि तुम कहाँ खड़ी हो! लेकिन मैं उन्हें क्या बताती कि यही अंदाजा मैं पहले ही लगा चुकी हूँ इसलिए पेपर नहीं दे रही! खैर मैंने पेपर नहीं दिए! और सभी को सिलेक्शन न होने कि वजह यही बताई कि मेरी तबियत खराब हो जाने के कारण एक्साम नहीं दे सकी और भगवान को रोज़ धन्यवाद देती थी कि अच्छा हुआ जो तबियत खराब हो गयी वरना क्या बहाना बनती खराब नंबर आने का! पर आज कोई बहाना नहीं...मैं असफल हुई थी केवल अपनी गलती की वजह से ,तबियत खराब न भी होती तब भी मेरे खराब नंबर ही आते!

हांलाकि ये बहुत छोटी बातें हैं लेकिन फिर भी मैंने कभी किसी से ये बात शेयर नहीं की...आज इन बातों को यहाँ लिखकर बहुत हल्का महसूस कर रही हूँ...शायद इन छोटी बातों के बाद कभी बड़ी असफलताओं का भी साहस और सहजता से सामना कर पाऊँ!

Saturday, July 19, 2008

बालसभा

जो लोग सरस्वती शिशु मंदिर में पढ़े होंगे...वो तो ज़रूर ही इस शब्द से परिचित होंगे और जो नहीं भी पढे हों शिशु मंदिर में मगर किसी भी औसत हिंदी माध्यम के विद्यालय में पढे होंगे ..वो भी बालसभा के नाम से जरूर परिचित होंगे और इसका आनंद भी लिए होंगे....

हमारे स्कूल में शनिवार का इंतज़ार सभी भैया बहनों को रहता था!उस दिन आखिरी के दो पीरियड नहीं लगते थे..उनकी जगह बालसभा होती थी!आधे लोग इसलिए खुश होते थे कि चलो हफ्ते भर तक जो कहानी,चुटकुला,नाच गाना तैयार किये हैं उसको दिखा देंगे...आधे लोग जिनमे हम भी शामिल थे इसलिए प्रसन्न होते थे कि लास्ट का पीरियड गणित का होता था और सबसे ज्यादा संटियाँ उसी पीरियड में टूटती थीं!चलो हफ्ते में कम से कम एक दिन तो मुक्ति मिलती थी उस गणित के पीरियड से!लघुत्तम ,महत्तम,संघ,समुच्चय...बाप रे कितनी डरावनी शब्दावली होती थी गणित की! खैर बालसभा की और चलते हैं सीधे....

बड़ा सा लाल नीले रंग का फर्श बिछा होता था हॉल में...चूंकि पूरे हॉल को नहीं ढँक पाता था तो पहले आओ पहले पाओ सिद्धांत अनुसार जो लेट आते थे उन्हें ज़मीन पर ही बैठना पड़ता था...उसका भी इंतजाम कर रखा था भाई लोगों ने...फुल साइज़ का रूमाल लाते थे शनिवार को जो कम से कम फर्श से तो स्वच्छ ही होता था!
एक बहादुर सा बच्चा खडा होकर कहता "मैं आज की बालसभा के अध्यक्ष के रूप में फलाने भैया का नाम प्रस्तावित करता हूँ"
"मैं प्रस्ताव का समर्थन करती हूँ" दूसरी बहन तत्काल खडे होकर कहती "
लो बन गए अध्यक्ष...अध्यक्ष गर्व से मुस्कुराता हुआ आचार्य जी लोगों के बगल में कुर्सी पर बैठता..केवल उसे ही ये सुविधा प्राप्त थी!इस प्रकार बालसभा प्रारंभ होती....जो भी अपनी कला पेश करने आता वो इन लाइनों से शुरुआत करता "मैं आज आप सभी के समक्ष .....प्रस्तुत करने जा रहा हूँ..जो भी त्रुटियाँ हों उन्हें क्षमा करने की कृपा करें!"हमारे स्कूल में फरमान जारी हुआ था की हर बच्चे को मंच पर आकर कुछ न कुछ बोलना ज़रूरी है...जो बच्चे मंच की सीढ़ी कभी नहीं चढ़े थे उनके लिए बड़ी समस्या उत्पन्न हो गयी...क्या करें!एक तो कुछ आता नहीं ऊपर से मंच पर पहुँचते ही हाथ पाँव फूल जाते थे!पर आज अगर बालसभा हमें याद है तो उन्ही लोगों की वजह से....चलिए आप भी देखिये कि कैसे कैसे प्रोग्राम प्रस्तुत किये जाते थे इन मंच से नफरत करने वाले लोगों द्वारा..
सबसे पहले मनीष चौधरी ...हमारे क्लास के सबसे होशियार लड़का..सदा प्रथम आने वाला!पहले आचार्य जी ने उसे प्यार से बुलाया..जब प्यार व्यार का कोई असर नहीं हुआ तो ज़रा सी घुड़की दी..पसीने से तरबतर ऊपर पहुंचा..१५ मिनिट तक तो "क्या सुनाऊ,क्या सुनाऊ" करता रहा...फिर जब प्रधानाचार्य जी ने आँखें तरेरीं तो जाने कहाँ से उसके मुख से अचानक एक चुटकुला फूट पड़ा!चुटकुला था -
एक मूर्ख दुसरे मूर्ख से- अगर तुम बता दो कि मेरे हाथ में क्या है तो मैं अपने हाथ में रखा बटन तुम्हे दे दूंगा"
दूसरा मूर्ख-कोई क्लू दो
पहला मूर्ख-गोल गोल है..उसमे चार छेद हैं
दूसरा मूर्ख-समझ गया....स्कूटर का पहिया

जैसे ही चुटकुला ख़तम हुआ...मनीष बिना हम लोगों के हंसने का इंतज़ार किये सीधे भागकर नीचे आया और अपनी जगह बैठकर फर्श से हथेलियों का पसीना पोंछने लगा..उसकी हरकत और चुटकुले का मिश्रित असर होता की सब ताली बजाकर हंस दिए...और असली बात अब बताने जा रही हूँ...मनीष ने लगातार तीन सालों तक हर बालसभा में यही चुटकुला सुनाया....
फिर बारी आती थी ...अनीता की! वो भी बड़ी लाजवंती टाइप की लड़की थी! जब पहली बार मंच पर पहुंची तो अपना चुटकुला शुरू करने के पहले दस मिनिट तक तो थूक ही गटकती रही....फिर शायद जब सारा थूक ख़तम हो गया होगा..तब कहीं जाकर चुटकुले की बारी आई!अब ज़रा चुटकुले पर भी गौर फरमाइये-
एक लड़की स्कूल से घर वापस आई और अपनी माँ से बोली "माँ भूख लगी है"
माँ बोली" भूख लगी है तो खाना खा ले"

हम सब अगली लाइन का इंतज़ार कर रहे थे इतने में अनीता जी "धन्यवाद "कहकर नीचे उतर आयीं!ये क्या....चुटकुला ख़तम. एक मिनिट सन्नाटा छाया रहा..फिर वो हंसी का पटाखा फूटा कि रहरह कर अंत तक हंसी गूंजती रही...हर बाल सभा में अनीता दस मिनिट के थूक गटकने के टाइम में नया चुटकुला तैयार कर लेती थी...
तीसरे थे राहुल भैया...उन्हें न चुटकुला आता था, न कहानी, न नाच ,न गाना! पर एक चीज़ कमाल आती थी! आलू बोलना....केवल आलू शब्द को वो इतनी तरीके से बोलता था कि सब हंसी के मारे लोटपोट हो जाते थे...गुस्सा,मनुहार,प्यार,बेचारगी,रोना ,हँसना...सब कुछ होता था उस आलू के साथ!हमने भी कई बार घर आकर बोलने कि कोशिश कि मगर नहीं बोल पाए..आलू की जगह भिंडी,लौकी कद्दू भी बोलने की कोशिश की मगर नाकाम रहे....अगर राहुल तुम कहीं ये पोस्ट पढ़ रहे हो तो एक बार अपने आलू का पौडकास्ट कर दो...सबको सुनवा दो!

Wednesday, July 16, 2008

डॉक्टर रोगनाशी और मादा केनाफिलीज़ ...



डॉक्टर रोगनाशी आजकल काफी प्रसन्न चित नज़र आते हैं!हों भी क्यों न ,बारिश का मौसम जो शुरू हो गया है उलटी ,दस्त,बुखार के मरीजों में इस बार जबरदस्त इजाफा हुआ है!इसी मौसम का डॉक्टर रोगनाशी को पूरे साल बेसब्री से इंतज़ार रहता है!पिछली बार तो सरकार ने जैसे डॉक्टरों के पेट पर लात मारने की ठान ही ली थी,बारिश शुरू होते ही दवाओं का इतना छिड़काव कराया की मलेरिया का एक भी मरीज दवाखाने पर नहीं आया!घर का खर्चा भी चलना मुश्किल हो गया था खैर चुनावी साल था तो इतना तो होना ही था!ये सोचकर डॉक्टर रोगनाशी ने भी सरकार को माफ़ कर दिया था!
लेकिन इस बार डॉक्टर ने भी पूरा इंतजाम कर रखा था! पहले ही नगर निगम के कर्मचारियों को मिठाई का पैकेट दे आये थे,ताकि उनके इलाके में दवा का छिड़काव नहीं हो सके! अपने क्लीनिक की सभी खिड़की ,दरवाजों से मच्छर जाली निकलवा दी जिससे अगर बाहर से कोई भला चंगा आदमी गलती से क्लीनिक आ जाये तो मलेरिया से वहीं के वहीं कापने लगे! नकली दवाओं के दर्जनों पैकेट इकट्ठे कर लिए ताकि पहली खुराक में ही कोई ठीक न हो जाए!यहाँ तक की बाजू वाली पैथोलोजी लैब के मालिक को पहले ही एक लिफाफा दे आये थे ताकि हर दुसरे आदमी को मलेरिया या टायफाइड निकले ही निकले!इतना सब करने के बाद डॉक्टर रोगनाशी निश्चिन्तता से बैठकर मरीजों का इंतज़ार करने लगे!
उस दिन भी डॉक्टर रोगनाशी क्लीनिक पर बैठे मरीजों का इंतज़ार कर रहे थे !इतने में लाला श्यामलाल कराहते हुए आये,डॉक्टर ने चेहरे की ख़ुशी को छुपाते हुए गंभीर मुद्रा बनायीं और अन्दर बुलाया! सामने स्टूल पर बैठाया और कहा 'मुंह खोलिए'!
लालाजी बोले "नहीं डॉक्टर ,मुझे कुछ बीमारी नहीं है,बस वो तो ज़रा ब्लेड हाथ में लग गया ,ज़रा कोई दवा लगा दीजिये, ठीक हो जायेगी!"
अरे नहीं,ऐसे कैसे ठीक हो जायेगी,मलेरिया जान पड़ता है!पूरा कोर्स लेना पड़ेगा!' डॉक्टर ने गंभीर मुद्रा बरकरार रखते हुए कहा!
"अरे सुनिए तो,ये तो ब्लेड की चोट है"
अरे आप सुनिए साहब,मान लिया कि जो ऊपर से दिखाई दे रही है वो ब्लेड की चोट है पर उसके अन्दर तो मलेरिया का कीटाणु है,आप मुंह खोलिए" डॉक्टर ने जबरदस्ती दोनों हाथों से लालाजी का मुंह फाड़ दिया!
मैं न कहता था ,मलेरिया है! पूरी जुबान पर कीटाणु हैं! आपने रोग बढ़ा लिया,पहले आते तो जल्दी फायदा होता! चलिए आप ही बताइए क्या बदन में उमस और चिपचिपाहट महसूस हो रही है?" डॉक्टर ने लालाजी कि पसीने से भीगा कुर्ता को देखते हुए कहा!
हाँ,लेकिन वो तो गर्मी कि वजह से.."
"इतनी भी गर्मी नहीं है ,क्या मुझे पसीना आ रहा है,देखिये" डॉक्टर ने बीच में ही टोकते हुए लगभग डांटते हुए कहा!
"पर डॉक्टर साहब.मलेरिया में तो ठंड लगती है न?" लालाजी ने अपना संशय प्रकट किया!
"अरे आप तो कुछ भी नहीं जानते, आजकर मच्छरों की नयी प्रजाति विदेश से आई हुई है! उसके काटने से गर्मी लगती है और ये मच्छर तो अपनी मादा एनाफिलीज़ से भी खतरनाक है,२ दिन में आदमी चल बसता है!
"अच्छा..."लालाजी ने हैरत से मुंह फाड़ा!
और यही नहीं,ये मादा केनाफिलीज़ बड़ी खतरनाक है...डॉक्टर ने विदेश से आई नयी प्रजाति का नामकरण किया!"
अगर पूरा कोर्स ना लिया जाए तो १० दिन बाद फिर से रोग उभर आता है और फिर ये लाइलाज ही समझो" डॉक्टर ने लालाजी को डराते हुए कहा और रूककर लालाजी के चेहरे के भाव देखने लगे कि डराना सफल हुआ कि नहीं!
"अरे बाप रे " लालाजी पसीना पोंछने लगे!
डॉक्टर खुश हो गया!तुरंत १० -१५ अलग अलग तरह की दवाएं निकालकर दे दीं...और खाने का तरीका समझा दिया!
लालाजी इतनी बड़ी बीमारी में जानकर सचमुच बीमार महसूस करने लगे! फीस चुकाई ,दवा ली और दुकान जाने की बजाय वापस घर की और चल दिए! मन ही मन डॉक्टर की प्रशंसा भी कर रहे थे की ब्लेड की खरोंच देखकर मलेरिया के बारे में जान गए! आहा,क्या गुणी डॉक्टर है.....
लालाजी ने घर पहुंचकर दवा की पहली खुराक ली और सो गए! जब सोकर उठे तो सर भारी,चक्कर और पेट में जलन की अनुभूति हुई! शायद मलेरिया ज्यादा बढ़ गया है....ये सोचकर रात वाली खुराक भी शाम को ही ले ली.....रात होते होते तो लालाजी ने दर्द के मारे लोट लगानी शुरू कर दी! नकली दवाओं ने अपना काम बखूबी किया था! पत्नी ने आनन फानन में पड़ोस के किसी डॉक्टर को बुलाया,उसने लालाजी को चैक किया ,दवाएं देखीं... पूछा" लालाजी,ये किस चीज़ की दवाएं खा रहे हो?"
अरे क्या बताऊँ डॉक्टर साहब, सत्यानास जाए उस मादा केनाफिलीस का ,मुई मलेरिया पकडा गयी!
"केनाफिलीज़ नहीं लालाजी,एनाफिलीस होता है!" डॉक्टर ने वाक्य शुद्ध किया! लालाजी ने डॉक्टर की बुद्धि पर तरस खाते हुए आज हासिल हुआ सारा ज्ञान जैसा का तैसा उड़ेल दिया! डॉक्टर जोर से हंसा ,बोला"लालाजी ,आज सवेरे सवेरे ही बेवकूफ बन आये! अब कभी मादा केनाफिलीज़ का नाम मत लेना,अगर एनाफिलीज़ ने सुन लिया तो आपको नहीं छोड़ेगी और एक बात,ये नकली दवाएं अभी खाना बंद कर दीजिये वरना इनके सेवन से ज़रोर आप चल बसेंगे !कहकर डॉक्टर ने फीस झटकी और चल दिया!
लालाजी के गुस्से का पारावार न था!समझता क्या है अपने आप को, ठग कहीं का ! ऐसी चक्की पिस्वाऊंगा जेल में की सात पुश्तें यादरखेंगी!
तुरंत उठे और अपनी शिकायत लेकर सीधे ड्रग इंसपेक्टर के पास पहुंचे ,उसे सारा वृतांत सुनाया और अनुरोध किया कि अभी जाकर नकली दवाओं के साथ उस डॉक्टर को पकडा जाए !निरीक्षक साहब ने लालाजी को कंधे पर हाथ रखकर आश्वासन दिया कि अपराधी चाहे जो हो नहीं बचेगा! लालाजी ख़ुशी ख़ुशी घर वापस आ गए!

अगले दिन निरीक्षक साहब मरीज बनकर डॉक्टर रोगनाशी के दवाखाने पर पहुंचे, और बताया कि पिछले दो दिन से कान में दर्द है! डॉक्टर ने अफ़सोस प्रकट करते हुए कहा "अच्छा हुआ आप टाइम पर मेरे पास आ गए! आपका मलेरिया बिगड़ गया है"
"कान के दर्द से मलेरिया का क्या वास्ता"
"अरे एक नयी मच्छर की प्रजाति है मादा केनाफिलीज़...इसका असर सीधे कान पर होता है और ३-४ दिन में तो इंसान बहरा हो जाता है" डॉक्टर ने सुबह वाली तरकीब एक बार फिर भुनाई!
"ओहो,तब तो जल्दी दवा दीजिए डॉक्टर साहब" निरीक्षक साहब ने मन ही मन प्रस्सन्न होते हुए कहा! उनका तीर बिलकुल निशाने पर लगा था!डॉक्टर दवा के पैकेट लेकर आया और वैसे ही निरीक्षक साहब ने डॉक्टर को अपना परिचय दिया व आने का प्रयोजन बताया! अब डॉक्टर की सिट्टी पिट्टी गुम हुई पर धैर्य नहीं खोया!
इन सब परिस्थितियों से निपटने के लिए उनके पास आपातकालीन योजना तैयार थी साथ ही आपातकालीन बजट भी!
निरीक्षक साहब को साइड में ले गए और पहले से तैयार एक लिफाफा भेंट किया " साहब, एक तुच्छ भेंट मेरी ओर से"
मुझे क्या समझा है तुमने? " निरीक्षक गरजा !
डॉक्टर उसके गरजने से अप्रभावित रहा,लिफाफे के वज़न में कुछ और बढोत्तरी की! अब निरीक्षक के चेहरे के भाव भी नरम हुए!
जाओ ,एक गिलास पानी ले आओ " उसने डॉक्टर को आदेश दिया!
डॉक्टर इशारा समझ कर नोट गिनने के लिए निरीक्षक को अकेला छोड़ गया!

५ मिनिट बाद वापस आया!
"ठीक है ठीक है,इस बार छोड़ देते हैं,आइन्दा शिकायत नहीं मिलनी चाहिए और हाँ मादा केनाफिलीज़ अकेली आप पर नहीं हम पर भी मेहरबान रहना चाहिए!" निरीक्षक ने आँख मारकर कहा!
"होगी हुज़ूर आप पर भी होगी,फीस का ४०% आप तक पहुँच जाया करेगा सरकार" डॉक्टर रोगनाशी ने खीसें निपोरते हुए कहा!
कहने की ज़रूरत नहीं है कि पूरी बरसात मादा केनाफिलीज़ ने डॉक्टर रोगनाशी और निरीक्षक साहब के घर नोटों की बरसात की! जय हो मादा केनाफिलीज़ की.

Saturday, July 12, 2008

एक मेहनतकश बच्चे की दास्ताँ


आज पहली बार कुछ करार आया है
गरीब के बच्चे पे मुझे प्यार आया है

मुफलिसी ने जितना सताया है उसको
उससे ज्यादा तो वो आज मुस्कुराया है

हाथों में जिसके सजनी थी कलम और किताब
वक़्त ने उस हाथ में बोझा थमाया है

सहमा सा बैठा है छोटे भाई को लिए
बाप उसका आज फिर से पी के आया है

बिखरे उलझे बाल, चेहरे पे चढी धूल
मासूमियत का कोई क्या बिगाड़ पाया है

खामोश निगाहों से दुकानों को ताकता
उफ़,नन्हें से दिल में कितना धीरज समाया है

करके जूते पॉलिश सुबह से शाम तक
माँ के लिए कुछ चूड़ियाँ खरीद लाया है

उन छोटे से बच्चे की गैरत को है सलाम
अभी अभी जो भीख को ठुकरा के आया है

धरती का बिछौना ,अम्बर की है चादर
थक हार कर कुदरत की गोद में समाया है

ढाबों,स्टेशनों और हर चौराहे पर
हर जगह उसी को,बस उसी को पाया है

घुमड़ रहा जेहन में बस एक ही सवाल
साठ साल बाद क्या यही भारत पाया है?

Wednesday, July 9, 2008

तुम्हारी यादें भी बरसी हैं रातभर


आज फिर जम के बारिश हुई
बगीचे के धूल चढ़े पेड़ पत्तियाँ
कैसे निखर गए हैं नहाकर
काली सड़कें भी चमक उठी हैं!
बह गए है टायरों के
धूल,मिटटी भरे निशान

और पता है...
इस बारिश के साथ
तुम्हारी यादें भी बरसी हैं रातभर
तुम्हारी तस्वीर पर जमी वक़्त की गर्द
धुल गयी है और
मेरे जेहन में तुम मुस्कुरा रहे हो
एकदम उजले होकर....

Friday, July 4, 2008

जब गणपति जी ने ब्लॉग बनाया...

एक बार गणपति जी ने भी अपना ब्लॉग बनाया ..वैसे भी उस लोक के सबसे बुद्धिमान देवता ठहरे! उन्हें कहीं से नारद ग्राम के बारे में पता चला....फिर क्या था गणेश जी को ये बुरा लग गया की उनसे पहले कोई और ब्लॉग जगत में सक्रिय हो गया और उन्हें कानो कान खबर तक नहीं...नारद जी को बुलाकर खूब हड़काया!नारद जी एक ही बात कहते रहे :हुजूर..विश्वास करिए कसम से मैंने कोई ब्लॉग नहीं बनाया है"
" मैं नहीं मानता तुम्हारी बात..देखो तुम्हारे नाम से ब्लॉग है या नहीं? गणेश जी बहुत गुस्से में थे
" हुज़ूर सही में..किसी मानव ने मेरे नाम से बनाया होगा" नारद जी गणेश जी की सूंड सहलाते हुए बोले!उन्हें पता थे गणेश जी को सूंड सहलवाना बहुत अच्छा लगता है....
ये तुमने हुज़ूर हुज़ूर क्या लगा रखा है..ठीक से भगवन नहीं कह सकते?" गणपति जी नारद जी का हाथ अपनी सूंड से हटा कर बोले
" माफ़ करिए हुजूर...मेरा मतलब भगवन! वो क्या है की कल ही प्रथ्वी के दौरे से वापस आया हूँ ..वहाँ इस शब्द से साहब लोग खुश होते हैं!
अच्छा...हमें तो ये पता ही नहीं था पर हमें तो भगवन ही पसंद है" गणपति जी अब थोड़े शांत हो गए थे
.अभी अभी एक ब्लॉगर मरकर ऊपर आया है !उसने हमें ब्लॉग के बारे में बताया..हमारा ब्लॉग तो होना ही चाहिए !" गणेश जी बोले
जी भगवन..मैं अभी एक कंप्यूटर लाये देता हूँ..नारद जी कहकर उड़ गए कंप्यूटर लाने के लिए!
लीजिये...भगवन का ब्लॉग तैयार हो गया... गणेश जी ने नाम रखा "गणपति का चिटठा"!
ब्लॉगर की आत्मा ने तुंरत ऐतराज किया "नहीं नहीं ये नाम नहीं चलेगा आप भगवन के नाम से ब्लॉग नहीं खोल ककते!
क्यों भाई चिट्ठाकार ..क्यों नहीं खोल सकता? गणपति जी जी को बात कुछ जमी नहीं!
" देखिये क्या है कि अगर आप ये कहकर अपना ब्लॉग बनायेंगे कि मैं तो भगवान गणेश हूँ तो कोई भी नहीं मानेगा..हँसी उडेगी सो अलग, आप चाहे जो नाम रखें माना तो आपको इंसान ही जायेगा तो इससे अच्छा कुछ ढंग का ही नाम रख लें...गणपति थोडा आउटडेटेड सा नहीं लगता?" ब्लॉगर ने सहमती कि प्रत्याशा में नारद जी की ओर देखा!
"बिलकुल ठीक..अब मेरे ही नाम से कोई ब्लॉग है पर कोई ये थोड़े ही मानेगा कि ये मैंने खोला है " नारद जी ने सहमती जताई!
लेकिन मैं तो रोज़ देखता हूँ ..मंदिरों में भक्तों कि भीड़ लगी रहती है...लोग हर कार्य प्रारंभ करने के पूर्व मेरी आराधना करते हैं..इतना तो मानते हैं और तुम कहते हो कि मेरे नाम से ब्लॉग बनाऊंगा तो कोई यकीन नहीं करेगा" गणेश जी फिर से क्रोध में आ गए!
"देखिये भगवान..बुरा मत मानियेगा! कभी किसी भक्त ने आपको पुकारा, आपसे सहायता की आस लगायी तो आप कभी प्रथ्वी पर पधारे? कभी अपनी किसी जादुई शक्ति से किसी मरते के प्राण बचाए, कभी कोई दंगा फसाद रोका? कभी किसी अनाथ बच्चे को चमत्कार से अच्छे घर में पहुंचा पाए? यानी कि आपने अपने प्रकट होने का कोई प्रमाण कभी नहीं दिया तो अचानक ब्लॉग बना लेने से कोई थोडी मानेगा! रही बात पूजा पाठ की तो आप हमारा मुंह न ही खुलवाएं तो अच्छा है...कैसे कैसे पापी आते हैं आपके दर्शन को! राम राम ...कहते भी लज्जा आती है!
"ठीक है ठीक है..अब ज्यादा चपड़ चपड़ न करो ..और श्री राम को न पुकारो अभी....वरना वो कही हमसे पहले ब्लॉग न बना लें" गणपति जी ने ब्लॉगर को घुड़का!
ब्लॉगर चुप हो गया!
लेकिन प्रभु..आप अपने ब्लॉग पर लिखेंगे क्या? ब्लॉगर ने उत्सुकता वश पूछा!
लिखूंगा श्लोक..और क्या! विविधता के लिए कभी अपने जीवन के किस्से भी डाल दूंगा! गणेश जी ने गर्व से कहा!
"हा हा..." ब्लॉगर नासमझी में जोर से हँस पड़ा!
गणेश जी ने कुपित होकर उसे देखा...और गुस्से में श्राप देने के लिए जल उठाया ही था की तभी नारद जी ने स्थिति को संभालते हुए गणपति जी को शांत किया और ब्लॉगर से माफ़ी मंगवाई!
माफ़ कीजिये..दरअसल मैं कहना चाहता था कि आजकल संस्कृत भाषा कोई नहीं पढता और श्लोक तो कैसे भी नहीं पढ़े कोई! दूसरी बात ये कि आपके जीवन के किस्से मसलन आपका सर हाथी का कैसे हुआ,आपने प्रथ्वी की परिक्रमा कार्तिकेय से पहले कैसे पूरी की वगेरह वगेरह घटनाएं उस लोक में सबको पता है बल्कि कहीं आप भूल जाये तो लोग याद दिला देंगे!" ब्लॉगर ने अपना मत रखा!
अरे ,करके देखने में क्या हर्ज़ है? " कहकर गणेश जी ने अपनी पहली पोस्ट का श्री गणेश एक श्लोक से किया! हर १५ मिनिट में पेज रिफ्रेश करके देखते की कितने कमेंट्स आये! सुबह से शाम हो गयी मगर एक भी टिप्पणी प्राप्त नहीं हुई!फिर भी हिम्मत रख के गणपति जी ने उस ब्लॉगर को उनके ब्लॉग से हर ब्लॉग पर टिप्पणी करने के काम में लगाया...एक दिन में करीब १०० टिप्पणी कर डाली मगर देर रात तक कोई टिप्पणी नहीं आई!निराश भाव से गणपति सोने चले गए...सुबह तडके ही नींद खुल गयी...उठते ही सबसे पहले कंप्यूटर खोला...मगर अब भी कोई टिप्पणी नहीं थी!खीजकर पुनः ब्लॉगर को बुलवा भेजा...ब्लॉगर ने पूरी बात सुनी..गहरा दुःख व्यक्त किया! बोला" प्रभु आप थोडा सा लेट हो गए...अगर १० दिन पहले ब्लॉग बना लेते तो शायद कुछ टिप्पणी तो ज़रूर आती...कुछ लोग बिना पढ़े ही सुन्दर सुन्दर टिप्पणी करके ब्लॉगर का हौसला बढ़ने का महान कार्य करते थे मगर कुछ दिनों पहले ही "कुश" नाम के एक ब्लॉगर ने इस प्रकार टिप्पणी करने वालों पर एक पोस्ट लिख डाली...इस के बाद अब बिना पढ़े कोई टिप्पणी नहीं कर रहा है!
आह..फिर क्या फायदा हमारे ब्लॉग बनाने का" गणेश जी दुखी स्वर में बोले!" हमने तो सोचा था कि मतिभ्रष्ट होते इस संसार को थोडा ज्ञान प्रदान करेंगे मगर हमारे श्लोक तो कोई पढना ही नहीं चाहता,हम अभी अपना ब्लॉग नष्ट किये देते हैं" कहकर गणपति जी ने ब्लॉग डिलीट कर दिया!
चूहे को बुलाया और सवार होने लगे....इतने में कुछ याद आया! तुंरत ब्लॉगर को बुलाया और बोले" हे मूर्ख..तूने अट्टहास करके हमारा उपहास उड़ाया था न.. हम तो तभी तुझे श्राप देने वाले थे पर तब तेरी ज़रूरत थी इसलिए मन मसोस कर रह गए..अब नहीं छोडेंगे तुझे" कहकर अपनी अंजुली में जल लेकर थरथर कांपते ब्लॉगर के ऊपर छिड़क कर बोले " जा तू अगले जनम में भी ब्लॉगर बने और तेरे ब्लॉग पर एक भी टिप्पणी न आये"क्षमा प्रभु...मुझे क्षमा कर दो..मुझसे भूल हुई" ब्लॉगर गणेश जी के चरणों में गिर पड़ा!
गणेश जी पसीजे और बोले " पुत्र...मेरा श्राप तो खाली नहीं जायेगा मगर जिस दिन तू दूसरों के ब्लॉग पर दस लाख टिप्पणी कर देगा उस दिन तू मेरे श्राप से मुक्त हो जायेगा" कहकर गणेश जी अपना चूहा दौड़ाते हुआ चले गए...और ब्लॉगर ..उसको उसके दूसरा जन्म लेने की डेट बता दी गयी है...अपनी बारी के इंतज़ार में खाली बैठे बैठे समय का सदुपयोग करते हुए उसने उँगलियों की कुछ एक्सरसाइज़ शुरू कर दी है और विविध टिप्पणियों का एक संग्रह भी तैयार कर लिया है...साथ ही हवा में उँगलियाँ चला चलाकर एक मिनिट में १० टिप्पणी की स्पीड भी प्राप्त कर ली है....भगवन उसकी दस लाख टिप्पणियाँ जल्दी पूर्ण करे!

Tuesday, July 1, 2008

दद्दू...तुम अक्सर याद आते हो


दद्दू... नाम लेते ही बरबस ही चेहरे पर मुस्कराहट आ जाती है!कई लोग जिंदगी में ऐसे मिलते हैं जिन्हें हम कभी भूल नहीं पाते! दद्दू भी उन्ही में से एक हैं....यूं कहने को तो मेरे ड्रायवर थे दद्दू! तीन साल तक मेरी गाडी चलाई उन्होंने! लेकिन ड्रायवर से ज्यादा कुछ थे मेरे लिए! उम्र लगभग ५७ साल, जैसा वो बताते थे..लेकिन लगते ६० के ऊपर ही थे! अक्सर मैं मज़ाक में उनसे कहती " दद्दू ,तुमने गलत उम्र लिखवा दी अपनी मार्कशीट में..सठिया तो पूरे गए हो" दद्दू झेंप जाते" अरे नहीं साहब..सही में ५७ का ही हूँ" हैड कांस्टेबल जगदीश सिंह सिकरवार- यही नाम था दद्दू का लेकिन दुसरे सिपाही उन्हें दद्दू कहकर ही बुलाते और शायद पहले ही दिन से मैंने भी उन्हें दद्दू बुलाना शुरू कर दिया था! मैं नौकरी में आने के बाद से ही अकेली रह रही हूँ....तो ऐसे में अपना पर्सनल स्टाफ ही परिवार जैसा हो जाता है!

जब मैं ग्वालियर गयी थी तो हाथ में केवल एक सूटकेस था!वहाँ जाकर घर का सारा सामान खरीदा...सारा सामान दद्दू के साथ जाकर खरीदती थी!हांलाकि पसंद मेरी ही होती थी मगर फिर भी तसल्ली के लिए दद्दू से पूछती "दद्दू...ये वाला सोफा लूं या वो वाला" ? साहब..दोनों अच्चे लग रहे हैं" नहीं ..एक बताओ" दद्दू सोचते हैं फिर बोलते हैं" वो कत्थई वाला अच्छा लग रहा है" अरे कहाँ दद्दू...ये वुडन कलर का ज्यादा अच्छा है,मैं तो यही लूंगी" मैं ऐसे बोलती जैसे दद्दू ही मुझे सोफा दिलवा रहे हैं! "हाँ..ये ज्यादा अच्छा है..." दद्दू मन में शायद सोचते की अपने ही मन से लेना है तो हमसे काहे पूछ रही हैं!

मैं अक्सर देहात में जाती थी...रास्ते में मोर,ऊँट,हाथी दिखाई देते तो मैं ख़ुशी के मारे दद्दू को भी दिखाती...दद्दू भी एक मुस्कराहट के साथ मेरी ख़ुशी बांटते!कई बार मेरी नज़र नहीं पड़ पाती तो दद्दू खुद मुझे दिखाते " साहब .देखो एक साइकल पर पांच लोग बैठे हैं और सब दूध की केन लिए हैं!" हम दोनों ठठाकर हंस देते! एक बार तो हद हो गयी मेरी गाडी में ही मेरे एस.पी. भी बैठे थे...अचानक एक हाथी को देखकर मैं बेखयाली में चिल्लाई" दद्दू...जल्दी देखो...कितना बड़ा हाथी" दद्दू चुप..एस.पी. ने एक पल मेरी और देखा और फिर मुंह छुपाकर मुस्कुरा दिए!

एक बार रात गश्त से लौट रही थी...सुबह के करीब सादे चार बजे थे .ठंडों के दिन थे तो खासा अँधेरा था! लौटते लौटते मुझमे भी जागने की ताकत नहीं बचती थी! पिछली सीट पर ऊंघने लगती थी! हम लौटे ,दद्दू ने गाडी खड़ी की...मेरी नींद खुली " दद्दू ,ये कहाँ ले आये" मैंने अजनबी जगह को देखकर आश्चर्य से पूछा! दद्दू ने इधर उधर देखा और बोले " अरे साहब..मैंने समझा घर आ गया" दरअसल दद्दू ने गाडी एक अखाडे में ले जाकर खड़ी कर दी थी उनका मासूम सा जवाब था" साहब,अपने घर का और अखाडे का गेट एक जैसा ही तो है"

जिस दिन दद्दू अपने बाल और मूंछे डाई करके आते...उस दिन शर्ट भी इन करके पहनते और अपनी उम्र से सीधे १० साल पीछे चले जाते और मुझे उन्हें छेड़ने का एक और मौका मिल जाता! और दद्दू शरमा के रह जाते! बारिश के दिनों में मेरे लॉन में काफी पानी भर जाता था ,एक दिन ऐसी ही तेज़ बारिश में मैं ढेर सारी कागज़ की नाव बनाकर पानी में पहुंची और सारी नाव एक साथ तैरा दीं.. साथ में अपनी हवाई चप्पलें भी पानी में तैरा दीं! दद्दू देख देख कर मुस्कुरा रहे थे...थोडी देर बाद मैं अन्दर आ गयी और १० मिनिट बाद बाहर झाँककर देखा तो दद्दू एक अखबार की नाव बनाकर पानी में छोड़ रहे थे..एकदम तल्लीन! मैं बाहर नहीं गयी...कहीं उनके भीतर का बच्चा शरमा कर भाग न जाए!

दद्दू बूढे भले ही थे लेकिन थे बहादुर...मुसीबत के वक्त उन्होंने कभी साथ नहीं छोडा...एक बार एक गाँव में हम गांजे की रेड करने गए लेकिन सारे गाँव वाले इकट्ठे हो गए और हमारे ऊपर फायरिंग शुरू कर दी!हम ६ लोग थे...दद्दू खेत के बाहर गाडी में अकेले थे! उनके ऊपर भी अटैक हुआ...सारी गाडी की तोड़ फोड़ कर दी!लेकिन दद्दू गाड़ी छोड़कर नहीं भागे...उन्हें भी हाथ में काफी चोट आई थी! मैंने बाद में पूछा" दद्दू,तुम वहाँ से हट क्यों नहीं गए थे?" साहब .आप भी तो खड़े रहे,मैं कैसे चला जाता" दद्दू का जवाब था! फिर मैं कुछ नहीं बोली!
अभी कुछ दिन पहले ही मेरे एक दोस्त को दद्दू रास्ते में मिल गए....उसने मोबाइल से मेरी बात करायी दद्दू से! शायद अब उन्हें कम सुनाई देने लगा है!मैंने पूछा "दद्दू कैसे हो?" अच्छा हूँ...आजकल कहाँ काम कर रहे हो दद्दू?" बस..साहब बढ़िया हूँ" दद्दू कुछ का कुछ सुन रहे थे!"दद्दू कभी भोपाल आओ" मैंने कहा! दद्दू ने तीसरी बार कहा" बस साहब बढ़िया हूँ!" फिर मैंने फोन रख दिया और एक बार फिर मेरे चेहरे पर मुस्कराहट थी....