Sunday, November 16, 2008

तेरी याद का एक पौधा



अपने दिल के गुलशन में मैंने
रोपा था तेरी याद का एक पौधा
मोहब्बत की खाद
अश्कों के पानी से
सींच सींच कर पाला बड़े प्यार से

आज बड़ा हो गया है मेरा ये पौधा
देख,कितने फूल आये हैं इसमें
और तू बिखर गयी है
फिजा में खुशबू बन के.....


जाते जाते समेट ली थी
तुम्हारी आहट मैने
अपने आगोश में,
हर शब बाहें खोल के
ज़मीन पे डाल देती हूँ इस आहट को

तुम्हे पता है न..
.मुझे अँधेरे में अकेले डर लगता है!

Thursday, November 6, 2008

कुत्ता कुर्सी पर


ये कुत्ते लोगों को इतने प्रिय क्यों होते हैं...समझ में ही नही आता! खासकर देसी काले भूरे खजैले कुत्ते से लोग इतनी प्रीति रखते हैं की उनके बच्चे जल भुन जाएँ!सुबह सुबह अखबार पढ़ते हुए अगर बच्चा आकर लटक जाए तो उसकी ऐसी तैसी कर देंगे लेकिन अगर गली में घूमता फिरता कुकुर आकर तलवे चाटने लगे तो जमाने भर का सुकून फेस पर दिखाई देने लगेगा! शायद असली वजह तलवे चाटना है, मुझे लगता है! इन कुत्तों से ही शायद लोगों ने तलवे चाटकर बौस को खुश रखने की कला सीखी है!


खैर ...बचपन में एक बार एक देसी कुत्ते ने मुझे काट खाया था..तब से मुझे तो उनसे नफरत सी हो गई है लेकिन आज सुबह से मन में सिर्फ़ कुत्तों का ही ख़याल आ रहा है! उसकी भी एक स्टोरी है...मन में रखी रही तो पेट फूलने लगेगा! कल बड़े हैपी मूड में एक थाने के काम काज की समीक्षा करने पहुँची! जाकर थाना प्रभारी की कुर्सी पर विराजमान हुई....कार्य शुरू हुआ!थोड़ा मन लगा ही था की अचानक पैरों पर अजीब सी गुदगुदी हुई , नीचे नज़र डाली तो चीख निकल गई!एक काले रंग का मरियल कुत्ता मेरे पैरों को लौलिपोप समझ कर चाटने में व्यस्त था! ये साला कहाँ से घुस आया....पूरी नफरत से हमने उसे फटकार कर भगाया! कें कें करता अपनी पुँछ समेटता निकल लिया कमरे के बाहर!

" क्या तुम लोग....ध्यान भी नही रखते, कुत्ते घुस आते हैं कमरे में?" मैंने स्टाफ को हड़काया ! सब लोग सहमकर पहले से ही भाग चुके कुत्ते को भागने का नाटक करने लगे!चलो हमने भी सोचा...कभी कभी ऐसा हो जाता है!वापस अपने लुप्त होते हुए हैपी मूड को पकड़ा और रजिस्टर में अपनी आँख गडा दी! पाँच मिनिट ही हुए होंगे की अचानक टेबल के नीचे किसी के ज़ोर ज़ोर से साँस लेने की आवाज़ आई....जी हाँ. कुत्ता ही साँसे भर रहा था मगर ये वो काला कुत्ता नही था! इस बार भूरे रंग का था और...ये भी शायद अनेरेक्जिया का मरीज़ था! परफेक्ट जीरो साइज़ फिगर!

एक पल को हँसी भी छूटने को हुई...मगर कंट्रोल कर गये, कहीं नफरत प्रेम में न बदलने लग जाए! जैसे तैसे इन भूरासिंह महाशय को भी लतिया कर बाहर का रास्ता दिखाया गया! इसके बाद हमने पूरे कमरे में बारीकी से नज़र दौडाई...कहीं कोई और कालिया या चितकबरा तो नही घुसा हुआ है!संतोष होने पर दुबारा काम में मन लगाने की कोशिश की...पर ये कुत्ते भी अजब चेंट हैं, कमरे से तो निकल गए मगर दिमाग से न निकले!

दिमाग भी कभी कभी अपनी ही चलाता है...पूछना चाहते थे कि कितने अपराध पेंडिंग हैं इस महीने में मगर पूछ बैठे " ये कुत्ते रोज़ आते हैं क्या?" मुंशी ने हाँ में सर हिलाया और कहा " यहीं बैठे रहते हैं दिनभर"
अच्छा...
" और इतना ही नही...कभी कभी तो साहब की कुर्सी पर भी बैठ जाते हैं" मुंशी ने हमारी बढती हुई दिलचस्पी को देखकर एक जानकारी और प्रदान की!और हमारी कुर्सी की और इशारा भी कर दिया!
" अरे बाप रे...मतलब जिस कुर्सी पर हम बैठे हैं यहाँ ये कुत्ते भी सुशोभित हो चुके हैं!हमारा दिमाग सुन्न सा हो गया! कौन ज्यादा अच्छा लगता होगा इस कुर्सी पर...हम या ...? ! जोर से सर को झटका हमने...ना जाने कैसे कैसे ख़याल आने लग पड़े हैं!
अब तक मुंशी पूरी रौ में आ गया था....उसे ना जाने कैसे लग गया कि हम इन कुत्तों के बारे में सारी बातें जान लेना चाहते हैं ,जबकि इस बात के बाद तो हम इन नामुरादों के बारे में कुछ नही जानना चाहते थे!मगर मुंशी महोदय को कहाँ चैन था...बोल ही पड़े " साहब...कल तो कुर्सी गन्दी भी कर गया था...आज ही धुली है!"

मर गये...कमबख्त अपने मुंह बंद नही रख सकता था! अब हालत इतनी ख़राब , ना कुर्सी से उठते बने और ना ही बैठते बने! हाथ का बिस्किट छूटकर प्लेट में गिर गया...कहीं इसे भी तो...! उफ़, इससे ज्यादा सोचते भी नही बना ! अगले दो मिनिट में ही दूसरे ज़रूरी काम का बहाना बनाकर बढ़ लिए हम भी! बाहर निकले तो देखा भूरा और कालिया दोनों गेट के पास बैठे थे...शायद हमारे जाने का इंतज़ार कर रहे थे!पता नही हमें भ्रम हुआ या दोनों सचमुच हमें देखकर मुस्कुराए!

पर अभी तक यही सोच रहे हैं कि इन कुत्तों में ऐसी क्या बात है जो इनकी पहुँच थानेदार की कुर्सी तक हो गई है...बन्दर हो तो फ़िर भी समझ में आता है की और कुछ नही तो खाली बैठे सर ही खुजा देगा मगर ये कुत्ते ऐसा क्या काम करते हैं थानेदार का? दिमाग ज्यादा तो कुछ नही सोच पा रहा है....बस वही तलवे चाटने पर जाकर अटक रहा है! सचमुच तलवे चाटने की महिमा ही न्यारी है!आप क्या कहते हैं...?

Monday, November 3, 2008

क्लर्क के एक्जाम में मैं फर्स्ट आया था


गर्व से माँ बाप का मस्तक उठाया था
जब क्लर्क के एक्जाम में मैं फर्स्ट आया था

पर जल्द ही दुनिया ने आइना दिखा दिया
सच्चाई से बच्चों का पेट भर न पाया था

ईमान और गैरत से जब बात न बनी
चापलूसी का हुनर तब काम आया था

पहली बार घर पे मैं मिठाई ले गया
जब सौ रुपये में फाइल को आगे बढाया था

गहराते हुए आसमान से नज़रें फेर के
चढ़ते हुए सूरज को सज़दे करके आया था

बिक गया ईमान तो दिल संग हो गया
बेबस का काम भी मैं मुफ्त कर न पाया था

पता न चला मजबूरी कब शौक बन गयी
ख़ुशी ख़ुशी मैं हर गुनाह करता आया था

करके गुनाह मैंने आहें खरीद लीं
बेटे ने कल नशे में मुझपे हाथ उठाया था

क्यों चुभने लगी कान में उन सिक्कों की खनक
जिनके लिए खुद को कभी मैं बेच आया था

Wednesday, October 15, 2008

जिंदगी के सिक्के का खोटा पहलू


आज ऑफिस में बैठे बैठे दरवाजे के बाहर नज़र पड़ी...एक बच्चा काफी देर से एक सिपाही के साथ खडा था! उत्सुकता वश अन्दर बुलाया...पता चला बच्चे पर चोरी का इल्जाम है और बाल अपराध शाखा में पूछताछ के लिए लाया गया है! एक दुबला पतला,सांवला सा करीब १२-१३ साल का लड़का आकर सामने खडा हुआ!

"क्या नाम है तुम्हारा?" मैंने उससे पूछा!
"आशीष" नीचे सर झुकाए उसने जवाब दिया!
कितने साल के हो?
१४ साल का
कहाँ तक पढ़े हो"
छठवी क्लास तक....
इतने में उसकी माँ भी पीछे पीछे आ गयी....
पढाई क्यों छोड़ दी?" मैंने आगे पूछा!
" पैसे कमाना था....इसलिए स्टेशन पर पोपकोर्न बेचने लगा!

" साहब...क्या करें? मेरा पति मर गया है...चार बच्चे हैं!सब नहीं कमाएंगे तो कैसे चलेगा? बच्चे की माँ बीच में बोली!
ये बताओ...चोरी करना कैसे सीखा? कब से कर रहे हो? कितनी बार पकडे गए हो?" मैंने इकट्ठे कई सवाल एक साथ किये!
" राधेश्याम ने जेब काटना सिखाया ....दो साल से चोरी कर रहा हूँ...दो बार सुधार गृह रह चुका हूँ!" नीची निगाह से आशीष ने बिना किसी लाग लपेट के बताया!
" सुधार गृह में रहने के बाद भी फिर से चोरी करते पकडे गए....क्या सीखा तुमने वहाँ? क्या फायदा हुआ वहाँ रखने का?" मैंने खीजकर पूछा!
" साब.. झाडू लगाना , बर्तन धोना, खाना बनाना और......इतना कहकर वह चुप हो गया और वापस नीचे देखने लगा!
" और क्या.....बोलो"
" और...ब्लेड नाखून में फंसाकर जेब काटना, ट्रेन की खिड़की से पर्स छीनकर भागना...." उसका सर अभी भी नीचे था !


मैंने ध्यान से उसे देखा....इतना मासूम चेहरा की अगर वह झूठ ही कह देता कि उसे पुलिस ने गलत पकडा है तो शायद उसकी बात पर मैं तुंरत विश्वास कर लेती ! उस बच्चे की कितनी गलती है जिसने शिक्षा के नाम पर जैसे तैसे छठवी क्लास पास की है...जिसकी माँ का कहना है कि पढ़ लिख कर क्या करेगा, जिसके दोस्त राधेश्याम जैसे चोर उचक्के हैं और जिसको पैसा कैसे कमाना चाहिए ये बताने वाला कोई नहीं है! और जिस सुधार गृह में उसे भेजा जाता है...वहाँ से वह चोरी करने के नए तरीके सीख कर आता है! सुधार गृह तो इन उभरते बाल अपराधियों के लिए ट्रेनिंग सेंटर का काम कर रहे हैं जहां उससे ज्यादा उम्र के बच्चे उसे पेशेवर बनने का हुनर सिखा रहे हैं....

मैं बच्चे को मेहनत करने और पढाई करने के लिए समझाती हूँ...बच्चा पहली बार मुस्कुरा कर सर हिलाता है...उसके गुटके के कारण बदरंगे दांत उसकी एक और बुरी आदत की पोल खोलते हैं! माँ भी वादा करती है की उसे स्कूल भेजेगी....दोनों चले जाते हैं ! पर मुझे मालूम है....शायद कुछ ही दिनों बाद ये बच्चा दोबारा कहीं और चोरी करता पकडा जायेगा! माँ को भी आदत हो गयी है..बच्चे के जेल जाने की! सचमुच लगता है , गरीबी से बड़ा गुनाह कोई नहीं है!

बच्चे के पीछे पीछे मैं भी बाल अपराध शाखा तक चली जाती हूँ....देखती हूँ वहाँ जमीन पर ऐसे ही तीन आशीष और बैठे हुए हैं! मन खराब हो जाता है! लिख तो रही हूँ ये सब, पर लिखने से क्या होगा....काश कुछ कर भी पाती...

Saturday, October 11, 2008

ये रिश्ते भी कितने अजीब होते हैं

आज बरसों बाद तुम्हे देखा
अच्छे लग रहे थे काली टीशर्ट और जींस में
पर तुम्हे कह भी न पायी
बस...यादें खींच कर ले गयीं बीते दिनों में

अभी कल की ही तो बात थी
तुम शामिल थे मेरी ढलती शामों और
उनींदी रातों में
हमारी ख्वाहिशों ने साथ ही तो
मचलना सीखा था

याद है...

उस रात नंगे पाँव लॉन में टहलते हुए
तुम बेवजह ही हँसे थे
मेरे सरदारों वाले जोक्स पर , और
चाँद भी बादलों पर कोहनी टिकाये
खिलखिला दिया था...

आज भी याद है वो वीराना चर्च
जहां एक रोज़ हमने अपनी धड़कनें बदली थीं
और सलीब पर टंगा ईसा
हौले से मुस्कुराया था

एक डूबती शाम को
चिनार के तले
तुमने अपने लबों से सुलगाया था
मेरे सर्द लबों को
सूखी पत्तियां चरमराकर जल उठी थीं

और तुम कह उठे थे जज्बाती होकर
हमारा ये रिश्ता
पाक है एक इबादत की तरह
मासूम है किसी दुधमुंहे बच्चे की हंसी जैसा
और सच्चा है माँ की दुआओं जितना

और आज....
क्योंकि कोई और बैठती है
तुम्हारी कार की फ्रन्ट सीट पर
सिर्फ इसी लिए हमारा रिश्ता
बन गया एक नाजायज़ रिश्ता

ये रिश्ते भी कितने अजीब होते हैं ना...?

Tuesday, September 30, 2008

घुघूती जी कहाँ हैं आजकल?

मित्रो...काफी वक्त से घुघूती जी ब्लॉग जगत से अनुपस्थित हैं! न ही पोस्ट के रूप में और न ही टिप्पणी के रूप में वे पिछले काफी समय से उन्होंने कुछ लिखा है!बीते दिनों उनके पतिदेव का स्वास्थ्य कुछ खराब था...इसलिए फ़िक्र हुई की कहीं उनके स्वास्थ्य ज्यादा खराब तो नहीं?उनका कोई मेल आई डी भी नहीं है!एक दो लोगों से जानना चाह पर उन्हें भी कुछ पता नहीं है! यदि आप में से किसी को उनके बारे में जानकारी हो तो कृपया बताएं की वे कहाँ हैं और कैसी हैं!

कृपया इस पोस्ट पर टिप्पणी न करें....सिर्फ उनकी जानकारी लेने के लिए ये पोस्ट लिखी है! धन्यवाद....

Monday, September 22, 2008

आस्तिक और नास्तिक के बीच एक शास्त्रार्थ

पंडित रामेश्वर शर्मा- शहर के एक स्कूल में शिक्षाकर्मी वर्ग -२ के पद पर कार्यरत मास्टर! स्कूल में सिलेबस कम और रामायण,महाभारत ज्यादा पढाते हैं,चूंकि उन्होने भी छुटपन से ही सिलेबस कम और रामायण ,नहाभारत ज्यादा पढा! जुगाड़ बैठ गयी सो नौकरी मिल गयी! घोर आस्तिक,कर्मकांडी,पूजन कीर्तन में मन रमाने वाले और संतान को ईश्वर का उपहार मानने वाले (ईश्वर के दिए ६ उपहार इनके घर में धमाचौकडी करते देखे जा सकते हैं!) ऐसे हैं पं. रामेश्वर शर्मा जी...

श्री द्वारिकाप्रसाद गुप्ता- शहर में कामचलाऊ प्रेक्टिस करने वाले एक वकील! साधारण सा मकान,साधारण सी पत्नी,साधारण से दो बच्चे,कुल मिलाकर सब कुछ साधारण! लेकिन एक बात बड़ी असाधारण, और वो है उनकी घोर नास्तिकता ! अगर कोई कहे कि मंदिर में हाथ जोड़ोगे या पांच जूते खाओगे तो तुरंत पूछेंगे 'कहाँ खाना है सिर पर या पीठ पर' ! ऐसे हैं श्री द्वारिकाप्रसाद जी !

तो हुआ यूं कि एक रोज़ पं. रामेश्वर को कहीं से द्वारिका प्रसाद जी कि घोर नास्तिकता की भनक लगी तो विचार बनाया कि चलकर वकील साहब की बुद्धि को शुद्ध किया जाए सो अपनी साइकल खड़खडाते पहुँच गए वकील साहब के घर! चुटिया पर हाथ फेरते घंटी बजाई,वकील साहब ने दरवाजा खोला! पंडित जी ने नमस्कार की मुद्रा बनाई! वकील साहब ने ऊपर से नीचे तक आँख फाड़ फाड़ कर देखा पर परिचय का कोई निशान न पा सके! पंडित जी ने अपना परिच दिया,आने का प्रयोजन बताया! वकील साहब अन्दर से ऐसे प्रसन्न हुए कि होंठ तो होंठ ,मूंछें तक मुस्कुरा उठीं ! उन्होने तरस खाते हुए आगाह कर दिया कि हमारे विचार नहीं बदलेंगे पर आशय था कि तुम्हारे जैसे छतीस आये छत्तीस गए पर हमारे विचारों को खरोंच तक नहीं आई!पर पंडित जी भी अपनी बात पर अड़े थे सो भैया शास्त्रार्थ शुरू होता है -


पं.-इससे तो आप सहमत होंगे कि भगवान् राम जैसा कोई आदर्श पुरुष नहीं?
वकील सा.-भगवान्,फगवान तो मैं कहता नहीं,हाँ राम जैसे दुनिया में बहुत मिलते हैं!
पं.-राम का जीवन एक आदर्श जीवन है!
वकील सा.-अब मुंह न खुलवाओ हमारा,एक ही उदाहरण दिए देते हैं! सीता को जो बिना बात के घर से निकाला है न,अगर आज का ज़माना होता तो धरा ४९८(अ) में कब के अन्दर हो गए होते!' काहे का आदर्श, हुंह ' वकील साहब ने मुंह बिचकाया!

पंडित जी मुंह की खाकर थोडा तिलमिलाए,पर हिम्मत नहीं हारी!

पं.-चलो ठीक है,मत मानिए भगवान् राम को.हमारे तो करोडों देवता है अभी तो बहुत बचे हैं! सीता माता को तो पूजोगे?
वकील सा.- इससे अच्छा अपनी पत्नी को न पूजें जो हमारी गलतियों पर हमें खाने को दौड़ती है! सीता नासमझ थी,घर से आंसू बहाकर निकलने की बजाय पति की बुद्धि ठीक की होती,बच्चों को उनका अधिकार दिलाया होता,भरण पोषण भत्ता लिया होता तो कुछ सोचा भी जा सकता था!इससे अच्छी तो हमारी क्लाइंट्स हैं जो पति के खिलाफ मुकदमा लड़ने हमारे पास आती है.कम से कम अन्याय के खिलाफ आवाज़ तो उठाती है!

पंडित जी का चेहरा जो पहले से ही बदरंगा था,और बदरंग होने लगा, पर डटे रहे !

पं.-अच्छा छोडो रामायण को,महाभारत के पात्र ज्यादा वैरायटी लिए हुए है! उनमे से आपके कई आदर्श मिल जायेंगे!
वकील सा.-कोशिश कर देखो!

पं.-कृष्ण भगवान् को तो मानोगे,जिन्होंने हमेशा परिस्थिति देखकर काम किया और सफल रहे! वे सच्चे मायनों में आदर्श है!
वकील सा.-इस गुण को विद्वान् कूटनीति कहते है ! अगर कृष्ण को पूजें तो बिस्मार्क और नेहरू जी को क्यों न पूजें? इनकी कूटनीति भी मशहूर है!

पं. (जोर से)- गुरु द्रोणाचार्य समस्त गुरुओं में उत्तम है!
वकील सा.-काहे के उत्तम जी, इनसे अच्छे तो हमारे घासीराम मास्साब है ,बच्चों से फीस लेते है तो बदले में कम से कम एक घंटा पढाते तो है! तुम्हारे द्रोणाचार्य ने तो गरीब एकलव्य का अंगूठा दक्षिणा में ले लिया ,वो भी बिना कुछ सिखाये,पढाये! और दूसरी बात,वहाँ भी अगर अकाल से काम लिया होता और एकलव्य को पटाकर टीम में शामिल कर लिया होता तो टीम मजबूत हो जाती! आये बड़े द्रोणाचार्य को उत्तम कहने वाले !

पं.-और गुरु परशुराम...
वकील सा. (बीच से ही बात को लपकते हुए) - अरे,जातिवाद का श्रेय तो तुम्हारे परशुराम को ही जाता है! अपने विद्यालय की सारी सीट ब्राह्मणों के लिए आरक्षित कर दीं ! तुम्हारे ही होते होंगे ऐसे आदर्श,हमारे नहीं होते!
पंडित जी खिसिया खिसिया कर ढेर हो रहे थे,वकील साहब के तर्कों के आगे उनके सारे वार खाली जा रहे थे! पूरी एकाग्रता से सारे देवताओं का स्मरण कर उन्होने एक बार फिर जोर मारा ..

पं.- अच्छा,दानवीर कर्ण तो प्रत्येक गुणों से परिपूर्ण थे! अब कहो,क्या कहना है?
वकील सा.- हा हा,इमोशनल फ़ूल था कर्ण !ऐसी सीधाई भी क्या काम की कि अकल का भट्टा ही बिठा दे! जो लोग दिमाग को ताक पर रखकर केवल दिल से काम लेते है,वो मूर्खों के ही आदर्श हो सकते है!कर्ण से अच्छा आदर्श तो हमारे मोहल्ले का मनसा लुहार है ,जिसे बेवकूफ बनाकर उसी के घरवालों ने सारी ज़मीन अपने नाम करा ली और उसने ख़ुशी ख़ुशी कर भी दी! अब बाहर सड़क पर भीख मांगता मिल जायेगा,घर ले जाकर पूजा कर लेना उसकी!

पंडित जी पूर्ण रूप से परास्त हो चुके थे,वकील साहब के नथुने फ़ूल फूलकर विजय का एलान कर रहे थे! पंडित जी बेचारे क्या कहते, और कोई देवता उन्हें याद ही नहीं आये!आते भी कैसे ,बचपन से केवल रामायण,महाभारत ही पढी थी,वो भी १००-१०० पेज की कहानी की शकल में!अगर वही ढंग से पढी होती तो शायद वकील सा. के तर्कों के कुछ सटीक जवाब दे पाते ! पंडित जी धोती संभालते उठ खडे हुए! इससे पहले कि उनके खुद के विचार बदलते,उन्होने कृष्ण मुख करना उचित समझा! वो चले पंडित जी साइकल खड़खडाते ,अपनी चुटिया संभालते!

Thursday, September 18, 2008

" अतिथि देवो भव"

जाने किस जमाने में रची गयी होगी ये लाइन " अतिथि देवो भव" ! वैसे जिस भी ज़माने में रची गयी हो , एक बात तो तय है की उस वक्त अतिथि बड़े बढ़िया टाइप के होते रहे होंगे!बढ़िया माने ऐसा काम करने वाले जिससे मेजबान ऐसी कहावत बनाने को मजबूर हो जाए!वैसे बचपन में भी हमें वो मेहमान सदा प्रिय रहे जो आते समय चॉकलेट लाते थे और जाते समय मम्मी के न न करने पर भी दो-पांच रुपये हाथ में ठूंस जाते थे!
ऐसे देवता स्वरुप अतिथियों के आने पर मम्मी की डांट से भी मुक्ति मिलती थी!लिहाज के मारे मम्मी आँखें तरेर कर रह जाती थीं....और आँखें तरेरने से डट जाएँ ऐसे प्यारे और मासूम बच्चे हम कभी रहे नहीं!मम्मी के लिए वो कभी देवता रहे हों या नहीं हमारे लिए तो थे!

ये तो हुई हमारी कथा की भूमिका....भूमिका अगर अच्छी हो तो लगता है कि आगे भी कथा अच्छी होगी! अक्सर हम अपने दुःख की शुरुआत इसी तरह सुखभरे वाक्यों से करते हैं,
...हमें वो मेहमान सदा प्रिय रहे जो आते समय चॉकलेट लाते थे और जाते समय मम्मी के न न करने पर भी दो-पांच रुपये हाथ में ठूंस जाते थे!...

जिससे किसी को ऐसा न लगे की लो खोल ली अपने दुखों की गठरी!तो भैया...अब न वो बचपन रहा और न वैसे देवता स्वरुप अतिथि! शायद मेहमानों से बचपन में स्नेह होने के कारण भगवान ने हमें मेहमान नवाजी का भी बहुत मौका दिया है!हमारा घर मेहमानों का आदी है!हर प्रकार के मेहमान घर में निस्संकोच आते हैं!इन्ही में से दो मेहमानों को ख़ास चुनकर आपके सामने आज पेश कर रहे हैं....इस आशा के साथ कि उनकी इस पोस्ट पर नज़र ने पड़े!वैसे सावधानी बतौर हमने नाम उनके बदल दिए हैं!

अभी पिछले दिनों बेबी हमारे घर पधारी! ये 25 वर्ष की बालिका थीं....जो कोई इंटरव्यू देने भोपाल आयीं थीं! और इसमें ख़ास बात ये थी कि हमने इसके पहले इन्हें कभी नहीं देखा था! लेकिन परीक्षा देने वाले और इंटरव्यू देने वाले बच्चों के लिए हमारे मन में विशेष सुहानुभूति रहती है इसलिए हमने सहर्ष बेबी जी को अपने घर ठहराया! छोटी बहन का कमरा इनके लिए खाली कराया ...सोचा कि पहली बार आई है तो शायद संकोच की वजह से तकल्लुफ करेगी इसलिए विशेष रूप से ध्यान रखा की कोई कमी न रह जाए! पर नहीं साहब....तकल्लुफ क्या होता है , बेबी इससे नितांत अपरिचित थीं! अगले दो दिनों में हमें महसूस होने लगा कि वो मेज़बान है और हम मेहमान! हमारे अर्दली ने कभी हमारी डांट नहीं खायी थी मगर खाना बनने में दस मिनिट की देरी होने पर बेचारा अदबसिंह बेबी की ऐसी डांट खाया कि बेचारा रुआंसा हो गया! हम भी अकबकाये से रह गए!

घर के हर कुर्सी मेज़ पर बेबी के सलवार कुरते सुशोभित होने लगे! एक बार दबी जुबान में कहने की जुर्रत भी की कि अगर इन्हें घडी करके एक स्थान पर रख दिया जाए तो कैसा रहे? बेबी जी जवाब में मुस्कुरा दीं....जिसका अर्थ हम कभी नहीं समझ पाए! लेकिन चूंकि उनके कपडे कुर्सी टेबल से नहीं हटे इससे ये ज़रूर समझ गए आगे से ऐसे बेतुके आग्रह मेहमानों से नहीं करना है ! उनके स्नान करने के बाद बाथरूम की स्थिति सुलभ शौचालय सरीखी हो जाती थी! हमें कभी समझ नहीं आया कि इतना कीचड और मिटटी बाथरूम में किस प्रकार से आ जाता था!और तो और दीवार पर भी कीचड के निशान....मानो उछल उछल कर नहाती हो! उसके इंटरव्यू देने जाने के बाद हम अपनी बहन के साथ उसकी खूब बुराई करते! इससे गुस्सा थोडा कम हो जाता था!

टी.वी. देखते वक्त मजाल है कि रिमोट उनके हाथ की पकड़ से ढीला हो जाए! दो दिन हमने सहारा वन के प्रोग्रामों की टी.आर.पी. बढाई! एक बार टी.वी. देखते वक्त वो बोलीं...दीदी मैं अभी पानी पीकर आती हूँ! हम खुश हो गए ...चलो, इतनी देर में तो रिमोट अपने कब्जे में ले लेंगे मगर वे हमारे अरमानों पर पानी फेरते हुए बन्दर के बच्चे की तरह रिमोट को अपने से चिपकाए हुए ही चली गयीं!

दो दिन बाद इन्हें जाना था...इस बीच एक दिन हमें आदेश सुनाया गया कि ऑफिस पहुँचने के बाद हम अपनी गाडी भेज दें ताकि ये भोपाल दर्शन को जा सकें!यहाँ हमारी जीत हुई, हमने सफाई से बहाना बना दिया कि हमें ज़रूरी काम से कहीं जाना है इसलिए गाडी फ्री नहीं कर पायेंगे!लेकिन इतनी जल्दी प्रसन्न नहीं होना चाहिए...शाम को हमारे घर लौटते ही बड़ी चतुराई से हमसे पूछा गया " चलिए दीदी...हमें घुमा लाइए" हम तो खार खाए बैठे थे! हमने भी मधुर स्वर में कहा " नहीं यार में तो थक गयी हूँ! नहीं मन कर रहा है!" " ठीक है ..तो आप आराम करो, मैं ही जाकर घूम आती हूँ! आप थकी हो तो वैसे भी कहीं नहीं जोगी! अब तो गाडी फ्री है ही!" बेबी ने नहले पर देहला मारा! हमने एक मरी सी मुस्कराहट के साथ सर हिला दिया! अगले दिन मेहमान को जाना था...मेहमान ने कहा कि वैसे तो रात को ही जाना चाहती हूँ पर शायद रात की गाडी में रिज़र्वेशन न मिले इसलिए कल सुबह चली जाउंगी" हमने घबरा कर कहा " नहीं नहीं...तुम चिंता मत करो! रिज़र्वेशन हम करा देंगे! बल्कि अभी कराये देते हैं!" और उनके जवाब की प्रतीक्षा किये बिना हमने रात की गाडी में रिज़र्वेशन और कोटा लगाने के लिए थाने में फोन कर दिया!

इस प्रकार रात को ही हमने अतिथि देवता को रवाना कर दिया...इस प्रार्थना के साथ कि ईश्वर उनका अगला साक्षात्कार भोपाल नगरी में न करवाए! बड़े डरते डरते ये पोस्ट लिखी है....कहीं बेबी ने पढ़ ली तो बड़ी हेठी हो जायेगी! सोच रहे हैं कि अब दुसरे मेहमान के बारे अभी न ही लिखें तो अच्छा क्योंकि उनको गए हुए अभी ज्यादा वक्त नहीं हुआ है....थोडा उनकी स्मृति भी क्षीण हो जाए तब लिखने में कोई हानि नहीं है!आप क्या कहते हैं...?

Sunday, September 14, 2008

शायद खुशियाँ सबको अच्छी नहीं लगतीं....


अभी हाल ही में राज भाटिया जी का लेख देखा....आदतों का गुलाम होने के विषय में! कल ही घर में काम करने वाली बाई ने बताया की उसकी बेटी बहुत परेशान है...पति कुछ नहीं करता , दिन भर शराब पीता है और मारपीट करता है! कई बार सोचती हूँ...कितने लोग सिगरेट, शराब, ड्रग्स ,तम्बाकू, गुटके की चपेट में हैं...इनके नुकसानों को जानते बूझते भी नहीं छोड़ पा रहे हैं...सबसे ज्यादा घर बरबाद होते हुए मैंने देखे हैं शराब की आदत से!कितनी औरतें दिन भर कमाती हैं और शराबी पति एक झटके में उस मेहनत को बोतल में भरकर पी जाता है....उसके बाद गाली गलोज , पिटाई का देर रात तक चलने वाला सिलसिला! पति शराब पीकर सोया हुआ है और पत्नी आंसू पीकर जागती रहती है! बच्चे भी सहमकर माँ से चिपक जाते हैं....कुछ साल बीतते हैं , पति कई बीमारियों का शिकार होकर हड्डियों का ढांचा बन चूका है! लेकिन घर की स्थिति नहीं बदलती है! अब बेटे ने बाप की जगह ले ली है!बोतल की खनखनाहट अभी भी घर में गूंजती है.....ये तो हुई निचले तबके के घरों की बात जो अशिक्षित हैं! उन परिवारों का क्या जो सिर्फ फैशन समझकर या स्वयं को हाई सोसायटी दिखाने के लिए जानते बूझते इस जहर को शरीर में उतार रहे हैं!कभी उन बच्चों से पूछिए जिनका पिता शराब के नशे में झूमता हुआ घर में कदम रखता है.....क्या एक लड़खडाता हुआ पिता अपने बच्चे के क़दमों को फिसलने से रोक पायेगा?! एक शौक के रूप में शुरू हुई आदत किस कदर इंसान को शिकंजे में ले लेती है!ये तब पता चलता है जब स्थिति भयावह हो जाती है......कई परिवारों का पैसा, मान सम्मान मिटटी में मिलते मैंने अपनी आँखों से देखा है!जाने कब और कैसे ख़त्म होगी इस दुनिया से नशे की लत......? ऐसे ही किसी शराबी पति से दुखी महिला से मिलने के बाद खराब मन से कभी एक कविता लिखी थी....


तीन सहमे, डरे, सिमटे हुए बच्चे
कसकर पकडे
एकदूसरे का हाथ
घर के कोने में बैठे हैं...

माँ भी अपना सूजा बदन लिए
दर्द से कराहती
आँखों में
दर्द,बेबसी,अपमान और
शर्म के आंसू लिए
औंधे मुंह पड़ी है

मोहल्ले के लोगों को
कुछ देर के लिए
अपनी जिंदगी को भूलकर
मौका मिल गया है हँसने का
आखिर देखना चाहते हैं सभी
मुफ्त का तमाशा

और...
बच्चों का पिता
नशे में चूर
दिन भर की कमाई
शराब के नाम कर आया है और
फर्श पर पड़ा है
खून उगलता हुआ

और... ख़ुशी के मारे
पास ही नाच रही है
शराब की एक बोतल
आधी भरी...
गुरूर से कहती हुई
तू खुश है मुझे पीकर
और मैं बहुत खुश हूँ
तेरा जिस्म,दौलत,सम्मान
और परिवार की खुशियाँ पीकर....

Tuesday, September 9, 2008

एक सिफारिश छोटी सी...


सुनो मांओ
बाहर रिमझिम बरसात हो रही है
मत बांधो अपने नन्हे मुन्नों को
घर के अन्दर किताबों,वीडियोगेम और कार्टूनों में
तुमने शायद देखा नहीं
तुम्हारे नन्हे की आँखें खिड़की के बाहर टिकी हुई हैं
क्या तुम्हे उसकी आँखों की प्यास नज़र नहीं आती?

उसे निकलने दो घर के बाहर
खेलने दो गीली मिटटी में
भीग लेने दो जी भर कर
यकीन मानो,
ये मिटटी उसे नुकसान नहीं पहुंचायेगी

उसे देखने दो
बारिश में भीगता पिल्ला
कैसे अपने रोंये खड़े करके कांप रहा है
शायद वह उसे किसी सूखी जगह पर रख दे

उसे सुनने दो
बूंदों का मीठा संगीत
शायद ये संगीत उसकी आत्मा में
सरगम बनकर उतर जाए

उसे छूने दो
भीगे हुए रंगबिरंगे फूलों को
शायद फूलों की कोमलता
उसके ह्रदय को भी कोमल बना दे

उसे जानने दो
मिटटी में एक इंच नीचे ही
केंचुए भी रहते हैं
जो हमारे दोस्त हैं
शायद वह केंचुओं से डरना छोड़ दे

उसे महसूस करने दो
मिटटी की सौंधी महक
शायद वह जान पाए
इससे अच्छा कोई इत्र नहीं बना

और जब वह उछल रहे हों
पानी के छींटे उडाते हुए
चुपके से उनका एक फोटो खींच लो
सहेज लो इन पलों को अपनी स्म्रतियों में
शायद ये सबसे अनमोल तस्वीर होगी
उसके लिए भी और तुम्हारे लिए भी...



Thursday, September 4, 2008

बंधे हुए है हम सब एक अनजानी डोर से


रोज़मर्रा के जीवन में भी अचानक कभी कुछ ऐसा देखने को मिल जाता है जो यकीन दिला जाता है कि हम सभी इंसानों के बीच ऐसा कुछ है जो हमें एक दूसरे से जोड़े रखता है! अनायास ही नितांत अपरिचित चेहरे अपने से लगने लगते हैं...और सभी एक धागे से बंधे हुए से लगते हैं.!

मैं बांटना चाहूंगी अपना कल का अनुभव....बाज़ार से घर लौट कर आ रही थी तो देखा रास्ते में एक क्रेन आड़ी खड़ी हुई है जिसके कारण रास्ता बंद है और गाडी आगे नहीं जा सकती थी! ड्रायवर ने उतरकर पता किया तो मालूम हुआ कि एक पेड़ खतरनाक स्थिति में खडा है और उसे गिराने के लिए नगर निगम की क्रेन आई है...मैं वहीं गाडी रोक कर पेड़ के गिरने का इंतज़ार करने लगी...एक व्यक्ति ने एक मोटे रस्से को पेड़ की ऊंची डाल से बाँधा , इसके बाद क्रेन ड्रायवर क्रेन स्टार्ट करके उसे खींचने लगा ....लेकिन खट की आवाज़ हुई और रस्सा टूट गया ! रस्से बाँधने वाले और क्रेन ड्रायवर ने एक दूसरे को निराशा भरी आँखों से देखा और फिर से रस्सा बाँधने की तैयारी शुरू हुई! अब तक मैं भी उत्सुक हो चुकी थी की देखें इस बार पेड़ गिर पाता है या नहीं...एक बार फिर वही प्रक्रिया दोहराई गयी.....और जैसे ही क्रेन स्टार्ट हुई...वही खट की आवाज़ और रस्सा फिर टूट गया...! ओह...अच्छा नहीं लगा!

तभी मैंने गौर किया....की मेरी ही तरह कई राहगीर वहाँ रुके हुए हैं और इस प्रक्रिया को देख रहे हैं! जो दो पहिया वाहन वहाँ से निकल सकते थे...उन्होंने भी अपनी गाडियां रोक दी थीं! अब शुरू हुआ रस्से बाँधने वाले का हौसला बढाने का सिलसिला! सब तरफ से " शाबाश" ," इस बार हो जायेगा" आदि आवाजें आने लगीं! रस्सा बाँधने वाले ने एक बार फिर रस्सा कस के बाँधा और जैसे ही ड्रायवर ने क्रेन स्टार्ट की...भीड़ में से किसी ने चिल्लाया " गणपति बब्बा...." और ड्रायवर सहित सारे लोग चिल्ला उठे " मोरिया" ! ड्रायवर ने पूरे जोश में क्रेन आगे बढाई और एक बार फिर असफलता...! उन दोनों के साथ भीड़ से भी निराशा भरी आवाजें आयीं....


फिर से गणपति जी की जय जय कार के साथ काम शुरू हुआ....लेकिन लगातार चार बार रस्सा टूटा! लेकिन अब क्रेन वाले अकेले नहीं थे...करीब सौ अनजाने लोग उनका हौसला बढा रहे थे और रस्सा पकड़ने में मदद भी कर रहे थे ! इस वक्त जैसे सभी को कोई और काम याद नहीं था ...सिवा इसके की ये पेड़ गिरना है!आम तौर पर ट्रैफिक लाईट के ग्रीन होने का भी वेट न करने वाले लोग घर जाना भूल कर पिछले २० मिनिट से इस प्रक्रिया का हिस्सा बने हुए थे....मैं भी पेड़ गिरने के बाद ही वहाँ से जाना चाहती थी!फाइनली पांचवी बार रस्सा नहीं टूटा बल्कि एक जोर की आवाज़ के साथ पेड़ नीचे गिर गया! सभी लोग ख़ुशी से झूम उठे...कुछ ने करीब जाकर क्रेन ड्रायवर और उसके साथी को बधाई दी , कुछ ने वहीं से हाथ हिला दिया! दो मिनिट के बाद सब अपने अपने रास्ते चल दिए...और सड़क अपने पुराने ढर्रे पर लौट आई...मैं भी आगे चल दी!

मैं सोचती जा रही थी...वो क्या चीज़ है जो अनजान होते हुए भी हमें एक दूसरे से जोड़े रखती है? शायद हम एक जैसे हैं इसलिए दूसरे के प्रयत्नों में हमें अपने प्रयत्न दिखाई देते हैं... जब कोई और हिम्मत हारता है तो हम सब उसकी हिम्मत बढाते हैं क्योकी उसके अन्दर भी हमें अपना सा ही एक अक्स नज़र आता है.....खैर कारण जो भी हो , मुझे बहुत अच्छा लगा! घर पहुँचने को ही थी...तभी ड्रायवर बोला " मैडम...जब चौथी बार भी पेड़ नहीं गिरा तो मैं दुखी हो गया था!" मैंने धीरे से कहा " मैं भी!"

Saturday, August 30, 2008

दर्द बांटना श्रीमान व्यंगेश्वर जी का

श्रीमान व्यंगेश्वर जी से तो आप सभी परिचित होंगे...अरे वही जो बड़े अच्छे अच्छे व्यंग्य लिखते हैं.! पूरी दुनिया में श्रेष्ठ व्यंगकारों में गिनती होती है इनकी! हमारा भी सौभाग्य है की हम इनके मित्रों में शामिल हैं! हमें इसलिए भी इनका मित्र बनना पड़ा क्योकि व्यंग इनके खून में रचा बसा है...न जाने कब किस पर व्यंग्य लिख डालें कोई भरोसा नहीं! बर्तनवाली,धोबी,अडोसी पडोसी,किराने की दूकान वाला,पानवाले से लेकर कप प्लेट, झाडू,कुर्सी वगेरह निर्जीव चीज़ें भी इनके व्यंग्य का शिकार होने से नहीं बच सकी हैं! इनकी माँ बताती हैं की जब ये पैदा हुए तो पैदा होते ही अस्पताल के कमरे को और डॉक्टरों को देखकर ऐसी व्यंग्य भरी मुस्कराहट फेंकी की डॉक्टर तिलमिला गया और इन्हें गोद में उठाकर प्यार तक नहीं किया !

लेकिन इसके दो साल बाद जब इनका छोटा भाई पैदा हुआ तो उसी अस्पताल में हुआ...डॉक्टर को पता चला तो उसने कमरे की हालत सुधार ली थी ताकि फिर से व्यंगेश्वर जी के कटाक्ष भरी नज़रों का सामना न करना पड़े...लेकिन दो वर्ष के व्यंगेश्वर अब बोलना सीख गए थे! डॉक्टर के सफ़ेद एप्रन पर पीला सब्जी का दाग देखकर अपनी तोतली आवाज़ में बोल पड़े " घल में निलमा (निरमा) नहीं आता क्या ?" डॉक्टर को बुरा लगा! बाद में पिता जी को बोल दिया" अगर अगला पैदा हो तो कोई और अस्पताल देख लेना"! व्यंग करने की आदत को देखकर ही पिता ने स्कूल में व्यंगेश्वर नाम लिखा दिया! तब से लेकर स्कूल की अव्यवस्था,मास्टरों का निकम्मापन,खेल की टीम सिलेक्शन में घपला आदि मुद्दों पर खूब व्यंग्य लिखे! बाद में जैसे जैसे बड़े होते गए, देश दुनिया का कोई ऐसा मुद्दा नहीं रहा जिस पर व्यंगेश्वर जी की कलम का वार न हुआ हो!

कल हम अचानक उनके घर जा पहुंचे...देखा व्यंगेश्वर जी बड़े चिंतित नज़र आ रहे थे! दस मिनिट तक भी जब पानी को नहीं पूछा तो हम जान गए की सचमुच कोई गहरा दुःख इनके मन को भेद रहा है!
हमने पूछा "क्या हुआ? कोई परेशानी है क्या?"
क्या बताएं...घोर पीडा हो रही है!"
अरे ....सिर विर दर्द कर रहा है क्या" हमने भी आतुरता में पूछा!
उन्होंने हिकारत से हमें देखते हुए कहा " तुम साले स्वार्थी जीव...अपनी पीडा के अलावा कुछ दिखाई देता है या नहीं"
हम खिसिया कर रह गए " माफ़ करिए...क्या किसी और को कोई तकलीफ है? बच्चे,भाभीजी तो स्वस्थ हैं"?
तुम कभी घर ,परिवार से आगे की सोचोगे की नहीं?" हिकारत अभी तक बरकरार थी!
सुनकर गुस्सा तो ऐसा आया की बोल दूं " भाड़ में जाये तेरी पीडा , एक तो तेरे कष्ट पूछ रहा हूँ ऊपर से बकवास कर रहा है" मगर याद आया की दर्द बाटने का एक उसूल है कि आपका क्लाइंट जितना दुखी होगा उतना ही बिफरेगा! इसका तात्पर्य कि दुःख बहुत ज्यादा है!ज्यादा दुःख बांटना यानी ज्यादा पुण्य प्राप्त करना!दूसरी बात ये कि व्यंगेश्वर जी कि खरी खोटी सुनाना यानी एक एक व्यंग्य खुद के ऊपर लिखवाना.....इन्ही सब बातों को सोचकर हमने बुरा नहीं माना और स्वर को भरसक कोमल बनाते हुए पूछा " कुछ तो बताइए...हुआ क्या?

देखते नहीं हो...देश में भ्रष्टाचार, मंहगाई, गरीबी कितना बढ़ गए हैं....
हम्म...हमने समर्थन किया!
क्या करूं दिल को बड़ी पीडा होती है अपने देश की ये दुर्दशा देखकर! जहां देखो वहाँ कालाबाजारी, मुनाफाखोरी, रिश्वत, लालफीताशाही का बोलबाला है...गरीब और गरीब हो रहा है...अमीर और अमीर हो रहे हैं! " कहकर व्यंगेश्वर जी फिर से सर पकड़कर बैठ गए!
हमारी ताली बजाने की इच्छा हुई!
" काश कोई ऐसा चमत्कार हो जाए ,देश से सारा भ्रष्टाचार ,गरीबी गायब हो जाए हे प्रभु, मेरे भारत देश में रामराज ला दो!" व्यंगेश्वर जी सचमुच दुखी थे! हम भी दुखी हो गए और थोडा खुश भी की फिर एक बार दर्द बांटने का अवसर प्रभु ने दिया!
हमने उन्हें ढाढस बंधाते हुए कहा " बुरा न मानिए मित्रवर..लेकिन आपको ऐसी प्रार्थना नहीं करनी चाहिए!भगवन जो करता है अच्छे के लिए करता है !"
" अजीब आदमी हो तुम! कैसी गद्दारों जैसी बात करते हो...."
अरे पूरी बात तो सुनिए.." हमने बीच में ही उनकी बात लपकी वर्ना एक गाली पड़ने के पूरे पूरे आसार थे!" ये बताइए आपने सबसे अधिक व्यंग्य किन मुद्दों पर लिखे"
" इन्ही राष्ट्रीय और सामजिक समस्याओं पर..." थोडा चिढ़कर उन्होंने जवाब दिया!
" और ये व्यंग्य ही आपकी जीविका चलते हैं...न केवल धन बल्कि इन्हें लिखकर आपको यश भी प्राप्त हुआ है"! हमने पूछा
" हाँ हाँ...कई पुरस्कार जीते हैं हमने" व्यंगेश्वर जी की की गर्व भरी वाणी फूटी!
" जिन समस्याओं पर लिखकर आपको ये यश और धन प्राप्त हुआ...उन्ही को लानत भेज रहे हैं आप? क्या शोभा देता है आप जैसे पढ़े लिखे व्यक्ति को? " हमने थोडा सा दुत्कार टाइप दिया!
"क्या मतलब आपका" व्यंगेश्वर जी थोडा चकराए!
" मतलब साफ़ है मेरे भोले मित्र...फ़र्ज़ करो यदि देश से ये सारी समस्यायें गायब हो जाएँ तो तुम्हारे पास व्यंग्य लिखने के लिए क्या मुद्दा रह जायेगा? कौन पढेगा तुम्हारे व्यंग्य? " हमने समझाया!"
हम्म...आपकी बात में तो दम है" व्यंगेश्वर जी थोड़े कन्विन्स हुए!
आप ही बताइए...सतयुग में क्या कोई भी महान व्यंग्यकार पैदा हो सका? नहीं न...क्योंकि रामराज में कोई अव्यवस्था नहीं थी!
" इसलिए मैं कहता हूँ...आपको तो प्रार्थना करनी चाहिए की ये समस्यायें सुरसा के मुख की तरह बढती जाएँ ताकि आपके पास विषयों का कभी अकाल न पड़े""
व्यंगेश्वर जी ने उठकर हमें गले लगा लिया और गदगद स्वर में बोले " मित्र..मैं तुम्हारा सदा आभारी रहूँगा! तुमने मेरा दुःख दूर कर दिया! अब मैं ऐसी फिजूल बातें कभी नहीं सोचूंगा"! इतना कहकर व्यंगेश्वर जी ने कागज़ कलम उठाया और शांत मन से व्यंग्य लिखने में जुट गए!
हम बहुत प्रसन्न हुए...हमने न केवल दर्द बांटा बल्कि इस बार तो दूर भी कर दिया! ईश्वर शीघ्र ही पुनः किसी का दर्द बांटने का अवसर प्रदान करे ...

Sunday, August 24, 2008

क्यों नहीं लिखते एक ऐसी नज़्म..


एक मुट्ठी धूप, चन्द कतरे रात के
एक बूढा आसमान और
उस पर टंगे चाँद को
समेटते हो अपने जेहन में और
रच देते हो एक नज़्म

कभी मेरे घर आकर देखो
यहाँ भी है एक बूढा बाप
शायद एक आध मुट्ठी अनाज भी मिल जाये
चन्द कतरे आंसुओं के
टूटी खाट के सिरहाने पड़े हैं
और एक चाँद यहाँ भी है जो
अक्सर भूखा सोता है
क्यों नहीं लिखते एक नज़्म
उधडी और फटी जिंदगियों पर..

मोहब्बत और बेवफाई पर
रंग दिए हैं तुमने ढेरों कागज़
आँखें भर आती हैं लोगों की
जब पढ़ते हैं तुम्हारी दर्द में डूबी नज़्म
कभी आओ इधर भी और देखो
मेरी माँ पड़ी है बिस्तर पर खून उगलती
मांग रही है दिन रात मौत की दुआ
पर कमबख्त वो भी नहीं फटकती इधर
क्यों नहीं लिखते एक नज़्म
मौत की इस बेवफाई पर...

तुम जानते हो ,
कोई नहीं देखना चाहता
चाँद ,तारों की हसीन दुनिया के परे
जब फूल और तितली पर बन सकती है
एक उम्दा नज़्म तो फिर
क्यों कोई नाली में भिनकते मक्खी मच्छर
और फटी एडियों पर लिखे कोई कविता

पर तुम लिखो....
कोई पढ़े या न पढ़े
पर तुम्हे मिल जायेगा कोई न कोई पुरस्कार
आखिर निर्णायकों का ज़रूरी है
संवेदनशील होना भी...

Wednesday, August 20, 2008

ठसाठस भरी बस में तीन घंटे

बड़े दिनों बाद इस बार बस में सफ़र करने का अवसर प्राप्त हुआ....ब्लॉग बनाने के बाद से एक फायदा ज़रूर हो गया है! अच्छा अनुभव हो तब तो अच्छा है ही...ख़राब हो तो भी एक सुकून मिलता है की चलो एक पोस्ट का मसाला मिल गया! कहने का मतलब ये कि इस ब्लॉग ने मुश्किलों में भी एक आशा की किरण तो दिखा ही दी है!खैर सीधे मुद्दे पे आते हैं....

हुआ यूं कि इस बार रक्षाबंधन पर सौभाग्य से तीन दिन की छुट्टी मिल गयी तो घर चले गए!सबसे बड़े संकट की बात ये होती है जब घर जाना होता है कि भोपाल से शिवपुरी के लिए कोई ट्रेन नहीं है! झांसी या ग्वालियर तक ट्रेन से जाओ...फिर वहां से बाई रोड ही जाना पड़ता है! अब चाहे कहीं से भी जाओ रोड तो गड्डे वाली ही मिलनी है! तो भैया जैसे तैसे पहुँच तो गए शिवपुरी स्लीपर बस में....रात को सोते सुवाते! बाकी बची खुची नींद घर जाकर पूरी कर ली!लेकिन असली परीक्षा अभी बाकी थी!18 तारीख को वापसी थी...लौटते में ग्वालियर में थोडा काम था तो सोचा ...बस से ग्वालियर चलते हैं ,वहाँ से ट्रेन से भोपाल आ जायेंगे!बस...यही सोचकर गलती कर बैठे! घर वालों ने आगाह भी किया कि त्यौहार का टाइम है...बहुत भीड़ होगी अभी! हमने मुस्कुराते हुए गर्व से अपने मित्र को जो शिवपुरी में एस.डी.ओ.पी. है, फोन लगाया और उससे दोपहर की किसी फास्ट बस में सीट बुक करवाने को कहा! मित्र ने तुंरत एक सिपाही को पाबन्द कर दिया! हम इत्मीनान से बस स्टैंड पहुंचे! सिपाही वहाँ पहले से मौजूद था! दस मिनिट में बस आई...आगे से दूसरी सीट हमारे लिए बुक थी! हमारे बाजू में एक और लड़की बैठी थी विंडो सीट पर... मन तो किया उससे कह दें कि विंडो सीट पर हम बैठेंगे मगर लिहाज कर गए और चुपचाप उसके बगल में बैठ गए! दो जनों की ही सीट थी! छोटी सी बस थी जिसमे टोटल चौबीस लोगों के लिए जगह थी! भगवान कसम... जब बैठे थे तो बिलकुल अंदाजा नहीं था कि भला आदमी ७० सवारी उस छोटी सी बस में चढाने वाला है वरना नहीं चढ़ते! बस चली....दस मिनिट बाद ही रुक गयी और फिर रुकी रही जब तक कि ठसाठस भर नहीं गयी! बैठने की जगह तो थी नहीं सो लोगों ने खड़े खड़े ही ठंसना शुरू कर दिया! दोनों सीटों के बीच कि गली में ठंसे लोग, पैरदान पर लटके लोग,बोनट पर बैठे लोग,और तो और ड्राइवर की सीट पर भी आधे बैठे लोग....बाप रे, कितने लोग! हमारी सीट के बगल में तीन लोग खड़े थे जो कि हम पर ही चढ़े चले जा रहे थे....एक दो बार मना किया कि " भैया जरा अपने भर खड़े हो लो" जब आग्रह के कोई असर नहीं हुआ तो हमने भी भाई लोगों को मुक्के मारना शुरू कर दिया! भाई लोग मुक्का खाते, एक बार पलट कर हमें देखते और पहले से भी ज्यादा मजबूती से जमे रहते!बगल वाली लड़की बार बार हमें देखती और चुपचाप आँखें बंद कर लेती....गुस्सा तो ऐसा आया कि कह दें " ऐसे नहीं चलेगा...आधी दूर तू खिड़की के पास बैठ ,आधी दूर हम बैठेंगे!" पर मालूम था ...वो नहीं हटने की!
हम भी अपनी सहन शक्ति की परीक्षा ले रहे थे!पर अब तो हद ही हो गयी....जब बेरहम कंडक्टर ने उस बस को दस किलोमीटर बाद रोककर चिल्लाना शुरू कर दिया " ग्वालियर...ग्वालियर.." उसकी आवाज़ पर भीड़ का एक रेला बाहर से खिंचा चला आया!बस में से आवाजें उठीं " अरे...अब क्या हमारी खोपड़ी पर बिठाएगा सवारी?" कंडक्टर ने बेहद संतुलित स्वर में जवाब दिया " चिंता नहीं...सबको जगह मिलेगी बैठने की" न जाने क्या बात थी उसके आश्वासन में...भीड़ संतुष्ट होकर अन्दर समा गयी!

तभी पीछे से एक औरत जो अपने बच्चे को गोद में लिए खड़ी थी, अचानक उफन पड़ी " आग लगे, धुंआ लगे, तेरी ठठरी बंधे....मुझे सीट दे, नहीं तो पैसे वापस कर दे मेरे"
कंडक्टर भी उफना " कहाँ से दे दूं सीट...मेरे पास कारखाना है सीटों का?"
महिला फिर दहाडी " तू ही तो कह रहा था कि बिठाकर ले जायेगा.."
तो सबर नहीं करेगी क्या जरा भी...अभी बस खाली होगी तो तू ही पसर जाना सीट पर"
जैसे तैसे महिला शांत हुई...पर बड़ी देर तक अन्दर ही अन्दर बड़बड़ाती रही!


अब तक मुक्के मार मार कर हमारा मुक्का दुखने लग गया था...महिला शांत हुई तो हम उफन पड़े कंडक्टर पर " अब तू ले चल गाड़ी सीधे थाने पर..तेरा चालान कराती हूँ !परेशान कर दिया लोगों ने धक्के मार मार कर " अब कंडक्टर थोडा सीधा हुआ और तुंरत उसने फरमान जरी किया " मैडम की सीट के पास कोई खडा नहीं होगा"
थोडी देर को सब इधर उधर हो गए...लोगों को एहसास हो गया कि हम सचमुच कोई मैडम हैं! तभी एक आदमी जो धोती कुरता पहने था...उसका कुरता उड़ उड़कर हमारे चेहरे पर आने लगा....कुछ कहने ही वाले थे ..इतने में उस आदमी ने हमारे मनो भावों को भाँपते हुए कुरता अपनी धोती में खोंस लिया और कष्ट के लिए माफ़ी भी मांग ली!

इतने ही कष्ट काफी नहीं थे....अब एक सज्जन को बीडी की तलब लग आई! बड़े आराम से बीडी सुलगाई और पहला सुट्टा मारा...बदबू का भभका सीधे हमारी नाक में घुसा! हम चिल्लाये " बीडी फेंक..." किसी ने भी हमारी बात का समर्थन नहीं किया मगर कंडक्टर ने उसके मुंह से बीडी निकाली और खिड़की से बाहर फेंक दी! उस आदमी ने जलती निगाहों से हमें देखा मगर हमारी निगाहें उससे भी ज्यादा जल रही थीं!पता नहीं..कैसे लोग बीडी पीने वालों को सहन कर लेते हैं!

डेढ़ घंटे चलने के बाद मोहना नाम का स्टेशन आया...यहाँ गाड़ी दस मिनिट खड़ी होनी थी! धन्य हैं रे भारतवर्ष के लोग....खड़े खड़े भी पकोडे खाने से बाज नहीं आये!ठीक हमारे बगल में एक आदमी पकोडे का दोना भर लाया...एक हाथ से दोना पकडे, एक हाथ से खाए और बाजू वाली सीट से कमर टिकाकर खडा होए! तीन चार पकोडे ही खाए होंगे की एक दचका लगा और दोना उछला और पकोडे बिखर गए...हर आदमी के कंधे पर या सर पर छोटा बड़ा पकोडा नज़र आने लगा! हम पर भी गिरा ..जिसे हमने तत्काल हटाया और बगल वाले के पैर पर गिरा दिया! हमने संतोष की सांस ली कि चलो इस व्यक्ति को दही बड़ा अथवा समोसा विथ चटनी की इच्छा नहीं जाग्रत हुई वरना क्या हाल होता! हमने देखा हमारे अलावा किसी और के माथे पर कोई शिकन तक नहीं थी..मानो पकोडे उछलना एक अत्यंत सामान्य घटना हो!

अब तक सर में भारी दर्द शुरू हो गया था...तभी कंडक्टर ने किसी से बात की जिससे हमें मालूम हुआ की इस बहादुर आदमी को अभी दो बार और शिवपुरी से ग्वालियर तक ऐसे ही लटक कर जाना है! ११२ किलोमीटर का सफ़र हमने तीन घंटे में पूरा किया! जैसे ही ग्वालियर बस स्टैंड पर पहुंचे...नीचे उतरे तभी बगल से धप्प की आवाज़ आई...हमने तत्काल अपनी गिनती सुधारी! उस बस में ७० नहीं अस्सी आदमी थे...दस आदमी छत की शोभा भी बढा रहे थे! उतारते ही कंडक्टर ने पूछा " मैडम...तकलीफ तो नहीं हुई न?"
हमने अपने होंठ फैलाकर मुस्कराहट बनायीं और कहा " नहीं भैया..बिलकुल नहीं" और आगे बढ़ लिए!

इस पूरी यात्रा पर चिंतन करने के बाद हमने कुछ निष्कर्ष निकाले जो निम्नानुसार हैं..
१- भारतीय इंजीनियर बहुत दूरदर्शी होते हैं! चौबीस सवारी की क्षमता वाला वाहन उन्हें बनाने को दिया जाये तो वे परिस्थितियों का बुद्धिमत्ता पूर्ण आंकलन कर असीमित क्षमता वाला वाहन तैयार करते हैं ..वो भी दी गयी लागत में!
२- भारतीय लोग कठिन से कठिन परिस्थितिओं में भी खाना पीना नहीं त्याग सकते! सलाम है उस जीवट इंसान को जिसे भीड़ में ठंसे ठंसे भी चाट पकोडे खाने की सूझ सकती है!
३- भारतीय बस का कंडक्टर बहुत वीर पुरुष होता है जो बार बार लगातार ऊबड़ खाबड़ सड़क पर सफ़र करके भी अपनी ऊर्जा नहीं खोता और इस प्रकार सभी को वीर बनने को प्रेरित करता है!
आशा है इस प्रसंग से आप सभी को भी बस में सफ़र करने के लिए आवश्यक बल और प्रेरणा प्राप्त हुई होगी...धन्यवाद!

Tuesday, August 19, 2008

एक पुरानी ग़ज़ल

बहुत दिनों से ब्लॉग से दूर थी....आज कुछ नया तो नहीं एक पुरानी ग़ज़ल ही पोस्ट कर रही हूँ!बहुत दिनों से कुछ नया नहीं लिखा!शायद एक दो दिन में कुछ लिखूं...

जब से तकदीर कुछ खफा सी है
जीस्त भी मिलती है गैरों की तरह

शब के साथ ही गुम होते हैं
वफ़ा करते हैं वो सायों की तरह

बेताब तमन्नाओं को हकीकत से क्या
उड़ती फिरती हैं परिंदों की तरह

कहकहे लुटाता है सरे महफ़िल
तनहा रोता है दीवानों की तरह

बंद कमरे बताएँगे हकीकत उनकी
जो हैं दुनिया में फरिश्तों की तरह

पल में ग़म भूल खिलखिलाते हैं
खुदा,कर दो मुझे बच्चों की तरह

Thursday, August 7, 2008

किस्सा -ए -होस्टल ( भाग २)

पिछली बार वो तीन दिन होस्टल में और इस बार का अनुभव मात्र तीन घंटे का था...दिल्ली के एक गर्ल्स होस्टल का! साल भर पहले सबसे छोटी बहन मीडिया का कोर्स करने के बाद दिल्ली में नौकरी कर रही थी! और वहीं के एक गर्ल्स होस्टल में रह रही थी! उसी दौरान दिल्ली किसी काम से जाना हुआ!काम सुबह से शाम तक का ही थी...रात को भोपाल के ट्रेन थी! इसलिए शाम के तीन घंटे मैंने अपनी बहन के साथ उसके होस्टल में बिताए!

उसके कक्ष में उसके अलावा तीन लडकियां और थीं ..जो की लगभग २१-२२ साल की होंगी और सभी किसी न किसी प्राइवेट संस्थान में कार्यरत थीं!मैं वहाँ पहुंची...दीदी दीदी कहकर तीनों ने खूब सम्मान दिया! थोडी देर तो बेचारी मेरी उपस्थिति का ख़याल करते हुए सोशल और घरेलू इशूस पर बातें करती रहीं! लेकिन आधे घंटे में ही ये इशूस गायब हो गए और अब शुरू हुईं असली इशूस पर चर्चा! हम अपनी हंसी को छुपाने के लिए एक पत्रिका में मुंह घुसाए रहे!
पहली- पता है..आज पूरे १५ दिन हो गए ऑफिस जाते जाते पर अभी तक एक भी ड्रेस रिपीट नहीं की! और अभी एक हफ्ता तो और निकल जायेगा!
दूसरी- तू 15 दिन के बात कर रही है, मुझे एक महीना हो गया!
तीसरी- चलो छोडो ये बात...इस सन्डे को मूवी देखने चलें!
दूसरी- इसके पास ज्यादा ड्रेस नहीं है इसलिए टॉपिक बदल रही है!
सब की सब खी खी करके हंस पड़ीं! तीसरी का मुंह उतर गया! कुछ मिनिटों तक खामोश रही! शायद मुँहतोड़ जवाब देने की तैयारी कर रही थी! उठकर गयी और अलमारी में से एक पैकेट उठाकर लायी! उसके अन्दर एक पिंक कलर का टेडी बीयर था! पहली और दूसरी के मुंह से आह निकल गयी!
" ए दिखा न...कब लिया ,कहाँ से लिया"
" हर्षित ने दिया" तीसरी ने गर्व से इठलाते हुए कहा !आगे बोली.."तुझे भी तो विकी ने एक टेडी बीयर दिया था न..जरा दिखा"
दूसरी थोडा सकपकाई " रहने दे न...चल छोड़"
"अरे नहीं प्लीज़ दिखा न...हम तो सब दिखा देते हैं एक तू है की भाव खाती है" तीसरी इतनी जल्दी पीछा नहीं छोड़ने वाली थी!
पहली ने भी तीसरी का साथ देते हुए दूसरी पर जोर डाला!
दूसरी मन मसोस कर उठी और अपनी अलमारी में से एक भूरे रंग का टेडी बीयर उठा लायी! जो की साइज़ में पिंक टेडी बीयर का चौथाई था! और सस्ता भी दिख रहा था! तीसरी के चेहरे पर कटाक्ष भरी मुस्कराहट आ गयी!
पहली बोली " कुछ भी हो..हर्षित की बात ही अलग है"
" विकी भी मुझे इतना ही बड़ा टैडी बियर दे रहा था पर मैंने तो कह दिया..न रे बाबा..छोटा दो! मैं कहाँ होस्टल में इतना बड़ा रखती फिरूंगी!" दूसरी ने सफाई देने की कोशिश की जिसे पहली और तीसरी ने अपनी व्यंग भरी मुस्कराहट से असफल कर दिया!

आगे करीब उनकी एक घंटे की बातों से हमें पता चला कि तीनों के एक एक अदद बॉय फ्रेंड हैं और उनमे से दो के पहले भी एक एक अदद बॉय फ्रेंड रह चुके हैं! तीनों होस्टल में खाना बनाने वाले लड़के की स्मार्ट नेस पर फ़िदा हैं और एक लडकी को अपनी खूबसूरती पर खासा घमंड है जिसका बयान वो कुछ इन शब्दों में करती है! " सचमुच यार सुन्दर होना भी एक मुसीबत है...रोज एक नया लड़का पीछे पड़ जाता है.. इससे तो तुम लोग ज्यादा सुखी हो!जब चाहे कहीं भी जा सकती हो कोई टेंशन ही नहीं!" पता नहीं चला इसने अपनी सुन्दरता की तारीफ़ की या बाकी दोनों की बुराई करी!
दोनों लडकियां सुनकर कुढ़ जाती हैं, उनमे से एक बोलती है " ऐसा नहीं है वो तो हम लोग बोल्ड हैं..सही कर देते हैं पीछे आने वालों को! तेरे जैसे गेले बने रहे तो हो गया काम"
अब हिसाब बराबर हो गया है! बातचीत के दौरान ये हिसाब बराबर करने का सिलसिला लगातार चलता रहता है!
हमारी ट्रेन के आने में डेढ़ घंटा बाकी है....इस दौरान एक और दिलचस्प वाकया घट गया!
चटपटी बातों का दौर जारी ही था तभी पहली के बॉय फ्रेंड गौरव का फोन आ गया! लपक कर फोन उठाया...बात शुरू हुई जिसमे गौरव ने कहा कि वो होस्टल के सामने वाली एस.टी.डी. पर इंतज़ार कर रहा है! इतना सुनते ही पहली के जिस्म में ग़ज़ब की फुर्ती आ गयी! जब से झुतरी बनी बैठी थी पलंग पर! झटके से उठी और नहाने चल दी! दूसरी बोली " अब नहा क्यों रही है..ऐसे ही चली जा न..बेचारा नीचे ठण्ड में इंतज़ार कर रहा है" ( आपको बता दें कि ये घटना जनवरी की है)"
वो कहे का बेचारा...बेचारी तो मैं जो इतनी ठण्ड में ठंडे पानी से सर धो रही हूँ" कहकर पहली स्नान करने चल दी! करीब बीस मिनिट बाद गीले बालों में वापस आई! इस बीच गौरव का फोन लगातार बजता रहा! जिसे किसी ने नही उठाया! अब शुरू हुई कपडों की कवायद! दस मिनिट की मशक्कत और सहेलियों के मार्गदर्शन के बाद एक स्लीवलेस ड्रेस सिलेक्ट हुई! इसी बीच दूसरी ने कह दिया " भला हो गौरव का...आज नहा तो ली वरना दो दिन से तो बाथरूम का मुंह नहीं देखा था"तीसरी हस दी...पहली सजने में व्यस्त थी इसलिए लोड नहीं लिया! दूसरी बोली " बाल तो पोछ ले"
" नहीं..गीले बाल ज्यादा अच्छे लगते हैं , गौरव को वेट लुक ही ज्यादा अच्छा लगता है!" इतना कहकर पहली नीचे जाने लगी! इतने में दूसरी ने फिर चुटकी ली " अरे...कोई माचिस तो लेती जा..गौरव तो अब तक जम गया होगा"
पहली ने पीछे मुड़कर देखा और इतराती हुई चल दी! बाकी दोनों जोर से ठहाका लगाकर हँस दी!

अब हमारी ट्रेन का टाइम हो गया था...पत्रिका से मुंह हटाया और चल दिए!ट्रेन को भी उसी दिन टाइम पर आना था...काश थोडा लेट हो गयी होती तो इसका क्या बिगड़ जाता!गौरव से मुलाक़ात का किस्सा नहीं जान पाए, इसका अफ़सोस रहा!
तो ये था होस्टल का दूसरा अनुभव! इसके बाद हम एक साल और पुलिस अकादमी के होस्टल में रहे! वहाँ के काफी किस्से हैं जो एक पोस्ट में नहीं समा सकते इसलिए फिर कभी किश्तों में बताएँगे....नमस्ते!

Friday, August 1, 2008

खुशियाँ हमसे बचके जायेंगी कहाँ


कल की बारिश में खुशियों को भीगते ,मचलते,नाचते और तैरते देखा और छोटी बहन सिन्नी ने घर के अन्दर से कैमरा लाकर इन अनमोल पलों को कैद कर लिया!तेज़ बारिश में वो ३० मिनिट! वाकई ऐसा लग रहा था जैसे मुस्कराहट बरस रही हो आसमान से!कचरा बीनने वाले बच्चों को बारिश का उत्सव मनाते देखना एक यादगार अनुभव था!
आप भी देखिये इन खूबसूरत तस्वीरों को...घर के सामने सड़क पर नाली में खुशियाँ
मनाते बच्चे॥

हमसे जीना सीखो....

खुशियाँ कैसे चारों और बिखरी पड़ी हैं!हाथ बढाओ और समेट लो

यहाँ के हम सिकंदर

खुशियाँ हमसे बचके जायेंगी कहाँ

Wednesday, July 30, 2008

किस्सा -ए-होस्टल

लोग कहते हैं की होस्टल लाइफ के अपने आनंद होते हैं...और सही भी है अगर कॉलेज का होस्टल हो और दोस्त यारों के साथ जीवन के वो हसीन साल गुजारे जाएँ तो वे पल अविस्मरनीय बन जाते हैं!हमारे लिए भी अविस्मरनीय ही हैं वो तीन दिन!

पहला अनुभव- एम.ए. करने के बाद पी.एस.सी. परीक्षा का जब प्रीलिम्स निकाल लिया तो हम दोनों बहनों को मेन्स की तयारी के लिए पहली बार घर से दूर इंदौर कोचिंग के लिए भेजा गया! इसके पहले हम कभी अकेले नहीं रहे थे! तय हुआ की वहाँ गर्ल्स होस्टल में रखा जायेगा...हम दोनों भारी प्रसन्न क्योकी बचपन से ही न जाने क्यों होस्टल में रहने की बड़ी लालसा थी! अब पूरी होने जा रही थी!इंदौर में बड़े गणपति मंदिर के पास गंगवाल होस्टल है...वहीं हम दोनों रहने पहुंचे! दूसरी मंजिल पर एक कमरा हमें प्रदान किया गया जिसमे पहले से ही दो लडकियां और मौजूद थीं! दोनों पी.एम.टी. की तैयारी कर रही थीं...उम्र में काफी छोटी थीं हमसे ! एक कमरे में चार चार लडकियां...कैसे पढ़ेंगी? और उनमे से भी हम दो भयंकर बातूनी...हम सोच रहे थे की ये दोनों थोड़े शांत स्वभाव की निकल आयें तो पार पड़े वरना तो चारों का भविष्य हमें साफ़ नज़र आ रहा था! हमने डिसाइड किया की हम इन्हें ज्यादा भाव नहीं देंगे! पहला दिन तो कुछ यूं निकला कि हम लोग आपस में एक दूसरे को देखकर फर्जी स्माइल पास करते रहे! वो बड़ा समझ के आप आप करें और हम भी सभ्यता के मारे आप आप करें! अपने आप को ज्यादा सभ्य दिखाने के चक्कर में पूरा दिन खुल के हंस भी नहीं पाए! वहाँ की वार्डन बहुत तोप चीज़ थी!घर में होते तो अब तक दस बार नक़ल उतर गयी होती! पर वहाँ गंभीरता का चोल ओढे ओढे घबराहट सी होने लगी! जब शाम को दोनों लडकियां मार्केट तक गयीं तब हम दोनों ने आधा घंटा जम के ठहाके लगाये! उनके वापस आते ही फिर से घुन्ने बन गए! ठीक आठ बजे एक जोरदार किर्र की आवाज हुई और दोनों लड़कियों ने एक एक डिब्बी अपने हाथ में उठा ली और चलने लगीं...जाते जाते मुड़कर बोलीं " डिनर टाइम हो गया है..आप लोग भी आ जाइये नीचे डायनिंग हॉल में"
" अच्छा..आते हैं"
हम भी पहुंचे डिनर के लिए...देखा तो सभी लड़कियों के पास दो दो डिब्बियां थीं!मैंने बहन से कहा " अपन भी कल प्लास्टिक की डिब्बियां खरीद लायेंगे"
" पहले देख तो ले..क्या है इनमे" बहन ने फुसफुसा कर कहा!
खाना आया...डिब्बियां खुलीं! एक डिब्बी में घी,एक डिब्बी में अचार! देखते ही देखते अचार के आदान प्रदान होने लगा! और गप्पों और ठहाकों से हॉल गूँज उठा! मोटी मोटी रोटियाँ ,आलू की रसेदार सब्जी जिसमे किसी किसी की कटोरी में दो से ज्यादा आलू के टुकड़े भी थे! देखकर प्लास्टिक की डिब्बियों की उपयोगिता समझ में आ गयी! खैर खाना खाकर ऊपर अपने रूम में पहुंचे! बारह बजे तक पढाई की...दोनों लडकियां भी पढ़ रही थीं! बीच बीच में खुस फुसा कर बात करतीं! हमें लगा हमारे बारे में बात कर रही हैं!बड़ा बुरा लगा...अरे इतना भी सबर नहीं है जब हम कोचिंग जाएँ तब बुराई कर लें!बुराई करने की तमीज भी नहीं है!हमने खुसफुसा कर ही निश्चय किया की अगर ये ऐसा करेंगी तो हम भी इन्हें देखकर ऐसे ही फुसफुसायेंगे! अब अगली मुसीबत एक और आई...हमें आये जोर की नींद और हमारी दोनों रूम पार्टनर रात भर पढाई करने वालों में से थीं! एक बोली " हम सुबह चार बजे सोयेंगे तब लाईट बंद कर देंगे"
" रहने देना जी..हमने अपनी घडी में चार बजे का अलार्म लगाया है...हम चार बजे उठकर पढ़ते हैं" बहन ने जवाब दिया!
" क्यों रे...अपन कब चार बजे उठकर पढ़ते हैं" मैं बहन के कान मैं फुसफुसाई!
" अरे...जब इनकी नींद हराम होगी तब अकल ठिकाने आएगी इनकी!"
जैसे तैसे चादर आँखों पर डालकर सोने की कोशिश की! मगर दोनों लड़कियों की खुसुर फुसुर बदस्तूर जारी थी!
" देख तो...ये कितनी बुराई कर रही हैं अपनी" बहन ने कान में कहा!
" कुत्ता कुता भौंक रहे ,राजा राजा सुन रहे" हमने बहन को सांत्वना दी!

जैसे तैसे रात कटी....सुबह से एक नयी मुसीबत! बाथरूम जाने के लिए लम्बी कतार लगी थी!बाहर एक एक वाश बेसिन पर चार चार लडकियां ब्रश कर रही थीं!बुरे फंसे.....हम दोनों ने एक दूसरे को देखा!
" अपन रात को ही ब्रश कर लिया करें तो?" मैंने प्रस्ताव रखा!
" बकवास बंद कर...अपनी बारी का इंतज़ार कर चुपचाप" बहन ने आँख दिखाई!

एक घंटे में हम नहा धोकर फुर्सत हुए! शाम को कोचिंग से वापस लौटे! अब तक उन दोनों लड़कियों से थोडी दोस्ती हो गयी थी! हम लोगों ने आपस में करीब एक घंटा बातें कीं! रात होते ही फिर कल वाला नाटक..." हम तो चार बजे तक पढेंगे"
हम फिर से आँखों पर चादर डाल कर सो गए! बीच बीच में उनकी लगातार खुसुर फुसुर सुनाई देती रही! इस बार बहन ने सोने का नाटक करते हुए ही कान लगाकर सुना...और खुश होकर बोली " अपन खामखाँ इन पर शक कर रहे थे...ये अपनी बुराई नहीं करती हैं.., इनके बॉय फ्रेंड हैं उनकी बातें करती हैं!"
आहा...बड़ी तसल्ली मिली वरना कब तक " कुत्ता कुत्ता भौंक रहे राजा राजा सुन रहे" कहकर खुद को बहलाते! मन हुआ की इनसे कह दें " देवियों..अपने राजकुमारों की बातें करने के लिए तुम्हे लाईट जलाने की क्या ज़रुरत है! और पढाई का ड्रामा करने की भी आवश्यकता नहीं...हम तुम्हारी माएं नहीं हैं!तुम पी.एम.टी. में पास नहीं होगी तो हमारी सेहत में आधे ग्राम की भी कमी नहीं होगी!"मगर सोचा की थोडी और बेतकल्लुफी हो जाये तब कहेंगे वरना बुरा वुरा मान बैठें बेकार में!

इसी प्रकार तीन दिन गुज़र गए...हम आँख पर चादर डालकर सोते रहे...उनकी पी.एम.टी. की पढाई भी खुसफुसा कर चलती रही, हम भी डिनर पर जाते समय दोनों डिब्बियां ले जाने लगे!
चौथे दिन मम्मी आयीं..और हमने फैसला सुना दिया की अब हम होस्टल में नहीं रहेंगे! अलग रूम लेकर रहेंगे! मम्मी मान गयीं...हमने कोचिंग की ही एक लड़की के साथ रूम शेयर कर लिया! तो ये थे हमारे तीन दिन होस्टल के! कमरा लेकर रहने के अपने अलग किस्से हैं! फिलहाल ये हुआ होस्टल का पहला अनुभव! दूसरा अनुभव अगली पोस्ट में...

Monday, July 28, 2008

'ए खुदा...बचपन को तो बख्श


रात के वीराने में उसकी किलकारी
जैसे किसी ने साँझ ढले
राग यमन छेड़ दिया हो
उसकी वो नन्ही-नन्ही अधखुली मुट्ठियाँ
नींद में मुस्कुराते होंठ
बार-बार बनता-बिगड़ता चेहरा
मोहपाश में बाँध रहे थे

विडम्बना यह कि वो फरिश्ता
नरम बिछौना, पालना या
माँ की गोद में नहीं
बल्कि कचरे के ढेर पर सो रहा था
इंसानों को कहाँ फुरसत थी,
उसकी रखवाली
मोहल्ले का 'मोती' कर रहा था

ए खुदा!
हम बड़े ही बहुत हैं
तेरे इम्तिहानों से गुजरने के लिए
कम से कम बचपन को तो बख्श...

Thursday, July 24, 2008

जय हो आंग्ल भाषा की

जय हो आंग्लभाषा की जिसको आज की ये पोस्ट समर्पित है!अँगरेज़ चले गए,अंग्रेजी छोड़ गए " एक बहुत ही प्रचलित कहावत है जिसे अंग्रेजी से खफा हर शख्स कभी न कभी इस्तेमाल ज़रूर करता है!दरअसल अंग्रेजी से नफरत दर्शाने के लिए इससे सुन्दर कोई कहावत नहीं बनी!चाहे स्वदेसी आन्दोलन वाले हों ,चाहे ग्रामर के सताए हुए हों,चाहे अंग्रेजी छोड़ हर विषय में पास होने वाले हों...ऐसा मुंह बनाकर ये कहावत कहते हैं मानो इनका बस चले तो अभी झोले में भर के अंग्रेजों के देस में पटक आयें!

शुरुआत करते हैं इस अंग्रेजी पुराण की हमारे स्कूल से....जहां इंग्लिश का पीरियड तो लगता था लेकिन कहना और लिखना "आंग्लभाषा"पड़ता था! इंग्लिश कहने से भारतीय संस्कृति का क्षय होता था! जब हम पढाई करते थे तब गिना चुना एकाध इंग्लिश मीडियम स्कूल हुआ करते थे....उसमे और हमारे स्कूलों में मात्र इतना ही अंतर होता था की वहाँ के बच्चे "may i go to toilet sir" और " may i come in sir" बोला करते थे जबकि हम सब " क्या हम अन्दर आ सकते हैं आचार्य जी" उच्चारते थे! बाकी तो कोई अंतर कभी समझ नहीं आया! इंग्लिश बोलनी न हमें आती थी न उन्हें आती थी! हम खुश थे क्योकी हम तो हिंदी मीडियम में पढ़ते थे इसलिए इंग्लिश बोलना आना कोई ज़रूरी नहीं था मगर न वो खुश थे न उनके मां बाप क्योकी जहां हमारे स्कूल की फीस ८० रुपये थी (तांगा शुल्क सहित) ,वहीं उन्हें १०० रुपये देने पड़ते थे( तांगा अलग)!

ऐसी ऐसी भी माएं थीं या सही कहूं तो आज भी हैं जो घर में बच्चों को ठेठ देसी अंदाज़ में लाल भकूका होकर डांटती थीं लेकिन मेहमान के सामने " नो बेटे, घर के अन्दर प्ले मत करिए" या " बेटे,नोजी साफ़ करिए" कहती थीं वो भी चेहरे पर अत्यंत सौम्य भाव लाकर ! बेटेराम धन्य हो गए.. दिन भर तू-तड़ाक करने वाली माता अचानक सम्मान देने लगी!

एक बार एक नए आचार्य जी स्कूल में आये अंग्रेजी पढाने...चूंकि वो अंग्रेजी के मास्टर थे तो दबदबा भी अन्य अध्यापकों से थोडा अलग था! अंग्रेजी जानने का गौरव चेहरे से छलका पड़ता था! स्कूल में सभी आचार्यजियों को धोती कुरता पहनना अनिवार्य था...सब कोई मजे से धोती कुरता पहनकर साइकल पर आते! ये भी आते मगर फर्क इतना होता की ये पेंट शर्ट पहनकर आते और एक बेग में गणवेश रखकर लाते! स्कूल में आकर धोती कुरता धारण कर लेते! जाते वक्त फिर पेंट शर्ट चढा लेते! वो आचार्य जी कम " सर" ज्यादा लगते थे ! हम इनसे इतने ज्यादा प्रभावित थे की इनके द्वारा पढाये गए " neighbour" को "नाइघबोर" ही रटते रहे! आचार्य जी ने जो कह दिया सो पत्थर की लकीर! अगले साल एक नया लड़का क्लास में आया...उसने नाइघबोर की जगह " नेबर" कह दिया! ऐसा मज़ाक उड़ाया पूरी क्लास ने कि बेचारा मान बैठा कि वही गलत है!दो इन बाद वो भी "नाइघबोर" कहने लगा! सत्य झुक गया भले ही बाद में कभी जीत गया हो!इसी तरह सिक्स्थ क्लास में अंग्रेजी के पाठों में दो परिवारों का ज़िक्र होता था...एक मिस्टर दास ,जिनके बच्चे मोहन और रीता थे! एक मिस्टर स्मिथ का परिवार जिनके बच्चे जॉन और मेरी थे! जॉन की स्पेलिंग "john" लिखी जाती थी और मोहन की " mohan" ! हमारे आचार्य जी मोहन और जोहन पढाया करते थे! लगभग तीन साल तक हम जोहन ही कहते रहे!


एक और सर थे जो जबरदस्ती हमें टूशन पढाने के लिए लगाये गए थे! उनका अंग्रेजी ज्ञान हमारे गणित ज्ञान से भी कमज़ोर था! हमने उन्हें भगाने के सारे प्रयत्न किये...मैं और मेरी बहन उन्हें ऊपर से गद्दी डालकर टूटा सोफा बैठने के लिए देते, चाय में नमक डालकर भी पिलाई, और कभी होमवर्क तो अपने को करना ही नहीं था! लेकिन बेचारे बहुत सीधे थे...और गज़ब का जिगर कि उस टूटे सोफे पर चौथाई वजन रखकर एक घंटा पढाते रहे! कभी उफ़ तक नहीं की! हम बाद में चैक करते तो ज़रा सा बैठते ही अन्दर धंस जाते! लेकिन नमन है इस आंग्लभाषा को जो काम टूटा सोफा और नमक वाली चाय नहीं कर पायी वो इसने कुछ ही दिनों में कर दिया! हमने पहले दिन ही ताड़ लिया कि कमज़ोर कड़ी अपने हाथ लग गयी...वो मैथ्स कि किताब खोलते और हम अंग्रेजी की! उनसे कहते" सर..पूरा लैसन पढ़ के ट्रांसलेट कर दीजिये" मरते क्या न करते..उन्हें पूरे विषय पढाने के लिए लगाया गया था! सबसे कठिन चैप्टर छांटकर देते...जैसे ही पढने बैठते दो चार लाइन तो ठीक पर जैसे ही कोई कठिन वर्ड आ जाता तो उच्चारण नहीं कर पते और अपने गले को बड़े अजीब टाइप से खंखार कर साफ़ करते कि कठिन वर्ड उसी में उच्चारित हो जाता! एक लैसन में करीब दस-बीस बार उनका गला खराब होता था! हम भी ठहरे पक्के बेशरम...उनके गला साफ़ करते ही टोक देते " सर...इस वर्ड को कैसे बोलेंगे,दुबारा बता दीजिये" बेचारे अगले दस दिन में ही अन्य कार्यों में व्यस्त होने का बहाना बनाकर ट्यूशन छोड़ कर चले गए!

इस आंग्लभाषा की एक और खासियत है...वज्र मूर्ख को भी मूरख कहने पर लाल पीला हो जायेगा! "डफर" कह दो, खी खी कर के हंस देगा!गालियाँ भी इंग्लिश के वस्त्र धारण कर अपनी गरिमा को प्राप्त कर लेती हैं!सो बस यही कह सकते हैं कि " जय हो आंग्ल भाषा की"

Tuesday, July 22, 2008

मेरी असफलताएं

आज मैं सिर्फ अपनी असफलताओं के बारे में बात करना चाहती हूँ! अमूमन कोई मुझसे मेरे बारे में पूछता है तो मैं बड़े गर्व से बचपन से लेकर अब तक की सफलताओं का ज़िक्र किया करती हूँ ...जिसमे मैंने क्या क्या तीर मारे स्टाइल में अपनी जीवन गाथा सुनाती हूँ और इस कथा में कहीं भी मेरी कमियों का, गलतियों का या असफलताओं का ज़िक्र तक नहीं होता मानो ये सब मेरे जीवन का हिस्सा ही न हों....हम खुद को बहादुर कहते हैं लेकिन अपनी विफलताओं के बारे में बताने से डरते हैं! अभी दो दिन पहले ही दैनिक भास्कर में एन.रघुरामन का एक लेख पढ़ा जो सिर्फ असफलताओं के बारे में था..पढ़कर एहसास हुआ की मैंने भी कभी किसी को नहीं बताया की मैं कहाँ कहाँ जिंदगी की पायदान से फिसली हूँ!
जब भी कभी किसी ने मुझसे पूछा कि क्या आप थ्रू आउट फर्स्ट क्लास रही हैं... मैंने तत्काल जवाब दिया " जी हाँ...कभी सेकंड डिविज़न नहीं आई" जबकि ये सरासर गलत है! एक बार मेरी सेकंड डिविज़न आई थी! जब मैं tenth क्लास में थी तब साल भर केवल मस्ती में निकाला, परीक्षा टाइम में जितना पढ़ सकी पढ़ी!जब रिजल्ट आया तो ५९ प्रतिशत बना था! मेरे लिए अप्रत्याशित और सदमे भरा था क्योकि हमेशा से क्लास में फर्स्ट थ्री में शामिल होती आई थी! जिनकी सेकंड डिविज़न आती थी उन्हें हेय द्रष्टि से देखा करती थी! अब मैं खुद उसी जगह पर खड़ी थी!मम्मी पापा को भी बहुत दुःख हुआ,कहा तो ज्यादा कुछ नहीं उन्होंने लेकिन न कहते हुए भी दुखी चेहरे ने बहुत कुछ कह दिया! उसके बाद अपनी दसवी कि मार्कशीट कही भी लगाने से बचती रही, कोई पूछता तो फर्स्ट डिविज़न ही बताती रही! हांलाकि उसके बाद कभी सेकंड डिविज़न नहीं आया लेकिन ये बात मन को हमेशा कचोटती रही कि काश उस साल ढंग से पढाई की होती तो ये धब्बा नहीं लगता!और हाँ...एक और झूठ ,अगर कभी ये बताना ही पड़ जाता कि दसवी में मेरी सेकंड डिविज़न थी तो साथ में ये ज़रूर जोड़ देती थी कि उस साल परीक्षा के समय मेरे दादा जी का देहांत हुआ था तो पढ़ नहीं पायी थी! लेकिन आज कोई झूठ नहीं...मैं स्वीकार करती हूँ कि मेरी असफलता की पूरी जिम्मेदारी सिर्फ मेरी थी किसी और की नहीं!

दूसरा वाकया ...बचपन से ही मेरा सपना डॉक्टर बनने का था और इसलिए बारहवी क्लास के बाद पी.एम.टी. की तेयारी के लिए एक साल ड्रॉप दिया , जितना पढाई हो सकी उतनी की! लेकिन जितनी भी की वो एक्साम में पास होने के लिए नाकाफी थी! सभी को मुझसे बहुत उम्मीदें थी!साल ख़त्म हुआ और परीक्षा का दिन आ गया! पहला पेपर फिजिक्स का था जो कि मेरा सबसे अच्छा तैयार था!पेपर ठीक ठाक गया! केवल ठीक ठाक न कि बेहतरीन! पेपर देने के बाद समझ आ गया था कि आगे के पेपरों में क्या होने वाला था! मैं बहुत घबराई हुई थी! सिलेक्शन नहीं हो पायेगा उसकी इतनी घबराहट नहीं थी जितनी इस बात की थी कि लोग क्या कहेंगे? इसी घबराहट में रात को मेरी तबियत बिगड़ गयी...अस्पताल जाना पड़ा ! और सुबह का पेपर मैं नहीं दे सकी! जब एक पेपर छूट गया तो आगे के पेपर्स देने का कोई मतलब नहीं था इसलिए मम्मी के बार बार कहने पर भी मैंने पेपर नहीं दिए! मम्मी का कहना था कि भले ही सिलेक्शन न ही लेकिन तुम्हे खुद अंदाजा हो जाएगा कि तुम कहाँ खड़ी हो! लेकिन मैं उन्हें क्या बताती कि यही अंदाजा मैं पहले ही लगा चुकी हूँ इसलिए पेपर नहीं दे रही! खैर मैंने पेपर नहीं दिए! और सभी को सिलेक्शन न होने कि वजह यही बताई कि मेरी तबियत खराब हो जाने के कारण एक्साम नहीं दे सकी और भगवान को रोज़ धन्यवाद देती थी कि अच्छा हुआ जो तबियत खराब हो गयी वरना क्या बहाना बनती खराब नंबर आने का! पर आज कोई बहाना नहीं...मैं असफल हुई थी केवल अपनी गलती की वजह से ,तबियत खराब न भी होती तब भी मेरे खराब नंबर ही आते!

हांलाकि ये बहुत छोटी बातें हैं लेकिन फिर भी मैंने कभी किसी से ये बात शेयर नहीं की...आज इन बातों को यहाँ लिखकर बहुत हल्का महसूस कर रही हूँ...शायद इन छोटी बातों के बाद कभी बड़ी असफलताओं का भी साहस और सहजता से सामना कर पाऊँ!

Saturday, July 19, 2008

बालसभा

जो लोग सरस्वती शिशु मंदिर में पढ़े होंगे...वो तो ज़रूर ही इस शब्द से परिचित होंगे और जो नहीं भी पढे हों शिशु मंदिर में मगर किसी भी औसत हिंदी माध्यम के विद्यालय में पढे होंगे ..वो भी बालसभा के नाम से जरूर परिचित होंगे और इसका आनंद भी लिए होंगे....

हमारे स्कूल में शनिवार का इंतज़ार सभी भैया बहनों को रहता था!उस दिन आखिरी के दो पीरियड नहीं लगते थे..उनकी जगह बालसभा होती थी!आधे लोग इसलिए खुश होते थे कि चलो हफ्ते भर तक जो कहानी,चुटकुला,नाच गाना तैयार किये हैं उसको दिखा देंगे...आधे लोग जिनमे हम भी शामिल थे इसलिए प्रसन्न होते थे कि लास्ट का पीरियड गणित का होता था और सबसे ज्यादा संटियाँ उसी पीरियड में टूटती थीं!चलो हफ्ते में कम से कम एक दिन तो मुक्ति मिलती थी उस गणित के पीरियड से!लघुत्तम ,महत्तम,संघ,समुच्चय...बाप रे कितनी डरावनी शब्दावली होती थी गणित की! खैर बालसभा की और चलते हैं सीधे....

बड़ा सा लाल नीले रंग का फर्श बिछा होता था हॉल में...चूंकि पूरे हॉल को नहीं ढँक पाता था तो पहले आओ पहले पाओ सिद्धांत अनुसार जो लेट आते थे उन्हें ज़मीन पर ही बैठना पड़ता था...उसका भी इंतजाम कर रखा था भाई लोगों ने...फुल साइज़ का रूमाल लाते थे शनिवार को जो कम से कम फर्श से तो स्वच्छ ही होता था!
एक बहादुर सा बच्चा खडा होकर कहता "मैं आज की बालसभा के अध्यक्ष के रूप में फलाने भैया का नाम प्रस्तावित करता हूँ"
"मैं प्रस्ताव का समर्थन करती हूँ" दूसरी बहन तत्काल खडे होकर कहती "
लो बन गए अध्यक्ष...अध्यक्ष गर्व से मुस्कुराता हुआ आचार्य जी लोगों के बगल में कुर्सी पर बैठता..केवल उसे ही ये सुविधा प्राप्त थी!इस प्रकार बालसभा प्रारंभ होती....जो भी अपनी कला पेश करने आता वो इन लाइनों से शुरुआत करता "मैं आज आप सभी के समक्ष .....प्रस्तुत करने जा रहा हूँ..जो भी त्रुटियाँ हों उन्हें क्षमा करने की कृपा करें!"हमारे स्कूल में फरमान जारी हुआ था की हर बच्चे को मंच पर आकर कुछ न कुछ बोलना ज़रूरी है...जो बच्चे मंच की सीढ़ी कभी नहीं चढ़े थे उनके लिए बड़ी समस्या उत्पन्न हो गयी...क्या करें!एक तो कुछ आता नहीं ऊपर से मंच पर पहुँचते ही हाथ पाँव फूल जाते थे!पर आज अगर बालसभा हमें याद है तो उन्ही लोगों की वजह से....चलिए आप भी देखिये कि कैसे कैसे प्रोग्राम प्रस्तुत किये जाते थे इन मंच से नफरत करने वाले लोगों द्वारा..
सबसे पहले मनीष चौधरी ...हमारे क्लास के सबसे होशियार लड़का..सदा प्रथम आने वाला!पहले आचार्य जी ने उसे प्यार से बुलाया..जब प्यार व्यार का कोई असर नहीं हुआ तो ज़रा सी घुड़की दी..पसीने से तरबतर ऊपर पहुंचा..१५ मिनिट तक तो "क्या सुनाऊ,क्या सुनाऊ" करता रहा...फिर जब प्रधानाचार्य जी ने आँखें तरेरीं तो जाने कहाँ से उसके मुख से अचानक एक चुटकुला फूट पड़ा!चुटकुला था -
एक मूर्ख दुसरे मूर्ख से- अगर तुम बता दो कि मेरे हाथ में क्या है तो मैं अपने हाथ में रखा बटन तुम्हे दे दूंगा"
दूसरा मूर्ख-कोई क्लू दो
पहला मूर्ख-गोल गोल है..उसमे चार छेद हैं
दूसरा मूर्ख-समझ गया....स्कूटर का पहिया

जैसे ही चुटकुला ख़तम हुआ...मनीष बिना हम लोगों के हंसने का इंतज़ार किये सीधे भागकर नीचे आया और अपनी जगह बैठकर फर्श से हथेलियों का पसीना पोंछने लगा..उसकी हरकत और चुटकुले का मिश्रित असर होता की सब ताली बजाकर हंस दिए...और असली बात अब बताने जा रही हूँ...मनीष ने लगातार तीन सालों तक हर बालसभा में यही चुटकुला सुनाया....
फिर बारी आती थी ...अनीता की! वो भी बड़ी लाजवंती टाइप की लड़की थी! जब पहली बार मंच पर पहुंची तो अपना चुटकुला शुरू करने के पहले दस मिनिट तक तो थूक ही गटकती रही....फिर शायद जब सारा थूक ख़तम हो गया होगा..तब कहीं जाकर चुटकुले की बारी आई!अब ज़रा चुटकुले पर भी गौर फरमाइये-
एक लड़की स्कूल से घर वापस आई और अपनी माँ से बोली "माँ भूख लगी है"
माँ बोली" भूख लगी है तो खाना खा ले"

हम सब अगली लाइन का इंतज़ार कर रहे थे इतने में अनीता जी "धन्यवाद "कहकर नीचे उतर आयीं!ये क्या....चुटकुला ख़तम. एक मिनिट सन्नाटा छाया रहा..फिर वो हंसी का पटाखा फूटा कि रहरह कर अंत तक हंसी गूंजती रही...हर बाल सभा में अनीता दस मिनिट के थूक गटकने के टाइम में नया चुटकुला तैयार कर लेती थी...
तीसरे थे राहुल भैया...उन्हें न चुटकुला आता था, न कहानी, न नाच ,न गाना! पर एक चीज़ कमाल आती थी! आलू बोलना....केवल आलू शब्द को वो इतनी तरीके से बोलता था कि सब हंसी के मारे लोटपोट हो जाते थे...गुस्सा,मनुहार,प्यार,बेचारगी,रोना ,हँसना...सब कुछ होता था उस आलू के साथ!हमने भी कई बार घर आकर बोलने कि कोशिश कि मगर नहीं बोल पाए..आलू की जगह भिंडी,लौकी कद्दू भी बोलने की कोशिश की मगर नाकाम रहे....अगर राहुल तुम कहीं ये पोस्ट पढ़ रहे हो तो एक बार अपने आलू का पौडकास्ट कर दो...सबको सुनवा दो!

Wednesday, July 16, 2008

डॉक्टर रोगनाशी और मादा केनाफिलीज़ ...



डॉक्टर रोगनाशी आजकल काफी प्रसन्न चित नज़र आते हैं!हों भी क्यों न ,बारिश का मौसम जो शुरू हो गया है उलटी ,दस्त,बुखार के मरीजों में इस बार जबरदस्त इजाफा हुआ है!इसी मौसम का डॉक्टर रोगनाशी को पूरे साल बेसब्री से इंतज़ार रहता है!पिछली बार तो सरकार ने जैसे डॉक्टरों के पेट पर लात मारने की ठान ही ली थी,बारिश शुरू होते ही दवाओं का इतना छिड़काव कराया की मलेरिया का एक भी मरीज दवाखाने पर नहीं आया!घर का खर्चा भी चलना मुश्किल हो गया था खैर चुनावी साल था तो इतना तो होना ही था!ये सोचकर डॉक्टर रोगनाशी ने भी सरकार को माफ़ कर दिया था!
लेकिन इस बार डॉक्टर ने भी पूरा इंतजाम कर रखा था! पहले ही नगर निगम के कर्मचारियों को मिठाई का पैकेट दे आये थे,ताकि उनके इलाके में दवा का छिड़काव नहीं हो सके! अपने क्लीनिक की सभी खिड़की ,दरवाजों से मच्छर जाली निकलवा दी जिससे अगर बाहर से कोई भला चंगा आदमी गलती से क्लीनिक आ जाये तो मलेरिया से वहीं के वहीं कापने लगे! नकली दवाओं के दर्जनों पैकेट इकट्ठे कर लिए ताकि पहली खुराक में ही कोई ठीक न हो जाए!यहाँ तक की बाजू वाली पैथोलोजी लैब के मालिक को पहले ही एक लिफाफा दे आये थे ताकि हर दुसरे आदमी को मलेरिया या टायफाइड निकले ही निकले!इतना सब करने के बाद डॉक्टर रोगनाशी निश्चिन्तता से बैठकर मरीजों का इंतज़ार करने लगे!
उस दिन भी डॉक्टर रोगनाशी क्लीनिक पर बैठे मरीजों का इंतज़ार कर रहे थे !इतने में लाला श्यामलाल कराहते हुए आये,डॉक्टर ने चेहरे की ख़ुशी को छुपाते हुए गंभीर मुद्रा बनायीं और अन्दर बुलाया! सामने स्टूल पर बैठाया और कहा 'मुंह खोलिए'!
लालाजी बोले "नहीं डॉक्टर ,मुझे कुछ बीमारी नहीं है,बस वो तो ज़रा ब्लेड हाथ में लग गया ,ज़रा कोई दवा लगा दीजिये, ठीक हो जायेगी!"
अरे नहीं,ऐसे कैसे ठीक हो जायेगी,मलेरिया जान पड़ता है!पूरा कोर्स लेना पड़ेगा!' डॉक्टर ने गंभीर मुद्रा बरकरार रखते हुए कहा!
"अरे सुनिए तो,ये तो ब्लेड की चोट है"
अरे आप सुनिए साहब,मान लिया कि जो ऊपर से दिखाई दे रही है वो ब्लेड की चोट है पर उसके अन्दर तो मलेरिया का कीटाणु है,आप मुंह खोलिए" डॉक्टर ने जबरदस्ती दोनों हाथों से लालाजी का मुंह फाड़ दिया!
मैं न कहता था ,मलेरिया है! पूरी जुबान पर कीटाणु हैं! आपने रोग बढ़ा लिया,पहले आते तो जल्दी फायदा होता! चलिए आप ही बताइए क्या बदन में उमस और चिपचिपाहट महसूस हो रही है?" डॉक्टर ने लालाजी कि पसीने से भीगा कुर्ता को देखते हुए कहा!
हाँ,लेकिन वो तो गर्मी कि वजह से.."
"इतनी भी गर्मी नहीं है ,क्या मुझे पसीना आ रहा है,देखिये" डॉक्टर ने बीच में ही टोकते हुए लगभग डांटते हुए कहा!
"पर डॉक्टर साहब.मलेरिया में तो ठंड लगती है न?" लालाजी ने अपना संशय प्रकट किया!
"अरे आप तो कुछ भी नहीं जानते, आजकर मच्छरों की नयी प्रजाति विदेश से आई हुई है! उसके काटने से गर्मी लगती है और ये मच्छर तो अपनी मादा एनाफिलीज़ से भी खतरनाक है,२ दिन में आदमी चल बसता है!
"अच्छा..."लालाजी ने हैरत से मुंह फाड़ा!
और यही नहीं,ये मादा केनाफिलीज़ बड़ी खतरनाक है...डॉक्टर ने विदेश से आई नयी प्रजाति का नामकरण किया!"
अगर पूरा कोर्स ना लिया जाए तो १० दिन बाद फिर से रोग उभर आता है और फिर ये लाइलाज ही समझो" डॉक्टर ने लालाजी को डराते हुए कहा और रूककर लालाजी के चेहरे के भाव देखने लगे कि डराना सफल हुआ कि नहीं!
"अरे बाप रे " लालाजी पसीना पोंछने लगे!
डॉक्टर खुश हो गया!तुरंत १० -१५ अलग अलग तरह की दवाएं निकालकर दे दीं...और खाने का तरीका समझा दिया!
लालाजी इतनी बड़ी बीमारी में जानकर सचमुच बीमार महसूस करने लगे! फीस चुकाई ,दवा ली और दुकान जाने की बजाय वापस घर की और चल दिए! मन ही मन डॉक्टर की प्रशंसा भी कर रहे थे की ब्लेड की खरोंच देखकर मलेरिया के बारे में जान गए! आहा,क्या गुणी डॉक्टर है.....
लालाजी ने घर पहुंचकर दवा की पहली खुराक ली और सो गए! जब सोकर उठे तो सर भारी,चक्कर और पेट में जलन की अनुभूति हुई! शायद मलेरिया ज्यादा बढ़ गया है....ये सोचकर रात वाली खुराक भी शाम को ही ले ली.....रात होते होते तो लालाजी ने दर्द के मारे लोट लगानी शुरू कर दी! नकली दवाओं ने अपना काम बखूबी किया था! पत्नी ने आनन फानन में पड़ोस के किसी डॉक्टर को बुलाया,उसने लालाजी को चैक किया ,दवाएं देखीं... पूछा" लालाजी,ये किस चीज़ की दवाएं खा रहे हो?"
अरे क्या बताऊँ डॉक्टर साहब, सत्यानास जाए उस मादा केनाफिलीस का ,मुई मलेरिया पकडा गयी!
"केनाफिलीज़ नहीं लालाजी,एनाफिलीस होता है!" डॉक्टर ने वाक्य शुद्ध किया! लालाजी ने डॉक्टर की बुद्धि पर तरस खाते हुए आज हासिल हुआ सारा ज्ञान जैसा का तैसा उड़ेल दिया! डॉक्टर जोर से हंसा ,बोला"लालाजी ,आज सवेरे सवेरे ही बेवकूफ बन आये! अब कभी मादा केनाफिलीज़ का नाम मत लेना,अगर एनाफिलीज़ ने सुन लिया तो आपको नहीं छोड़ेगी और एक बात,ये नकली दवाएं अभी खाना बंद कर दीजिये वरना इनके सेवन से ज़रोर आप चल बसेंगे !कहकर डॉक्टर ने फीस झटकी और चल दिया!
लालाजी के गुस्से का पारावार न था!समझता क्या है अपने आप को, ठग कहीं का ! ऐसी चक्की पिस्वाऊंगा जेल में की सात पुश्तें यादरखेंगी!
तुरंत उठे और अपनी शिकायत लेकर सीधे ड्रग इंसपेक्टर के पास पहुंचे ,उसे सारा वृतांत सुनाया और अनुरोध किया कि अभी जाकर नकली दवाओं के साथ उस डॉक्टर को पकडा जाए !निरीक्षक साहब ने लालाजी को कंधे पर हाथ रखकर आश्वासन दिया कि अपराधी चाहे जो हो नहीं बचेगा! लालाजी ख़ुशी ख़ुशी घर वापस आ गए!

अगले दिन निरीक्षक साहब मरीज बनकर डॉक्टर रोगनाशी के दवाखाने पर पहुंचे, और बताया कि पिछले दो दिन से कान में दर्द है! डॉक्टर ने अफ़सोस प्रकट करते हुए कहा "अच्छा हुआ आप टाइम पर मेरे पास आ गए! आपका मलेरिया बिगड़ गया है"
"कान के दर्द से मलेरिया का क्या वास्ता"
"अरे एक नयी मच्छर की प्रजाति है मादा केनाफिलीज़...इसका असर सीधे कान पर होता है और ३-४ दिन में तो इंसान बहरा हो जाता है" डॉक्टर ने सुबह वाली तरकीब एक बार फिर भुनाई!
"ओहो,तब तो जल्दी दवा दीजिए डॉक्टर साहब" निरीक्षक साहब ने मन ही मन प्रस्सन्न होते हुए कहा! उनका तीर बिलकुल निशाने पर लगा था!डॉक्टर दवा के पैकेट लेकर आया और वैसे ही निरीक्षक साहब ने डॉक्टर को अपना परिचय दिया व आने का प्रयोजन बताया! अब डॉक्टर की सिट्टी पिट्टी गुम हुई पर धैर्य नहीं खोया!
इन सब परिस्थितियों से निपटने के लिए उनके पास आपातकालीन योजना तैयार थी साथ ही आपातकालीन बजट भी!
निरीक्षक साहब को साइड में ले गए और पहले से तैयार एक लिफाफा भेंट किया " साहब, एक तुच्छ भेंट मेरी ओर से"
मुझे क्या समझा है तुमने? " निरीक्षक गरजा !
डॉक्टर उसके गरजने से अप्रभावित रहा,लिफाफे के वज़न में कुछ और बढोत्तरी की! अब निरीक्षक के चेहरे के भाव भी नरम हुए!
जाओ ,एक गिलास पानी ले आओ " उसने डॉक्टर को आदेश दिया!
डॉक्टर इशारा समझ कर नोट गिनने के लिए निरीक्षक को अकेला छोड़ गया!

५ मिनिट बाद वापस आया!
"ठीक है ठीक है,इस बार छोड़ देते हैं,आइन्दा शिकायत नहीं मिलनी चाहिए और हाँ मादा केनाफिलीज़ अकेली आप पर नहीं हम पर भी मेहरबान रहना चाहिए!" निरीक्षक ने आँख मारकर कहा!
"होगी हुज़ूर आप पर भी होगी,फीस का ४०% आप तक पहुँच जाया करेगा सरकार" डॉक्टर रोगनाशी ने खीसें निपोरते हुए कहा!
कहने की ज़रूरत नहीं है कि पूरी बरसात मादा केनाफिलीज़ ने डॉक्टर रोगनाशी और निरीक्षक साहब के घर नोटों की बरसात की! जय हो मादा केनाफिलीज़ की.

Saturday, July 12, 2008

एक मेहनतकश बच्चे की दास्ताँ


आज पहली बार कुछ करार आया है
गरीब के बच्चे पे मुझे प्यार आया है

मुफलिसी ने जितना सताया है उसको
उससे ज्यादा तो वो आज मुस्कुराया है

हाथों में जिसके सजनी थी कलम और किताब
वक़्त ने उस हाथ में बोझा थमाया है

सहमा सा बैठा है छोटे भाई को लिए
बाप उसका आज फिर से पी के आया है

बिखरे उलझे बाल, चेहरे पे चढी धूल
मासूमियत का कोई क्या बिगाड़ पाया है

खामोश निगाहों से दुकानों को ताकता
उफ़,नन्हें से दिल में कितना धीरज समाया है

करके जूते पॉलिश सुबह से शाम तक
माँ के लिए कुछ चूड़ियाँ खरीद लाया है

उन छोटे से बच्चे की गैरत को है सलाम
अभी अभी जो भीख को ठुकरा के आया है

धरती का बिछौना ,अम्बर की है चादर
थक हार कर कुदरत की गोद में समाया है

ढाबों,स्टेशनों और हर चौराहे पर
हर जगह उसी को,बस उसी को पाया है

घुमड़ रहा जेहन में बस एक ही सवाल
साठ साल बाद क्या यही भारत पाया है?

Wednesday, July 9, 2008

तुम्हारी यादें भी बरसी हैं रातभर


आज फिर जम के बारिश हुई
बगीचे के धूल चढ़े पेड़ पत्तियाँ
कैसे निखर गए हैं नहाकर
काली सड़कें भी चमक उठी हैं!
बह गए है टायरों के
धूल,मिटटी भरे निशान

और पता है...
इस बारिश के साथ
तुम्हारी यादें भी बरसी हैं रातभर
तुम्हारी तस्वीर पर जमी वक़्त की गर्द
धुल गयी है और
मेरे जेहन में तुम मुस्कुरा रहे हो
एकदम उजले होकर....

Friday, July 4, 2008

जब गणपति जी ने ब्लॉग बनाया...

एक बार गणपति जी ने भी अपना ब्लॉग बनाया ..वैसे भी उस लोक के सबसे बुद्धिमान देवता ठहरे! उन्हें कहीं से नारद ग्राम के बारे में पता चला....फिर क्या था गणेश जी को ये बुरा लग गया की उनसे पहले कोई और ब्लॉग जगत में सक्रिय हो गया और उन्हें कानो कान खबर तक नहीं...नारद जी को बुलाकर खूब हड़काया!नारद जी एक ही बात कहते रहे :हुजूर..विश्वास करिए कसम से मैंने कोई ब्लॉग नहीं बनाया है"
" मैं नहीं मानता तुम्हारी बात..देखो तुम्हारे नाम से ब्लॉग है या नहीं? गणेश जी बहुत गुस्से में थे
" हुज़ूर सही में..किसी मानव ने मेरे नाम से बनाया होगा" नारद जी गणेश जी की सूंड सहलाते हुए बोले!उन्हें पता थे गणेश जी को सूंड सहलवाना बहुत अच्छा लगता है....
ये तुमने हुज़ूर हुज़ूर क्या लगा रखा है..ठीक से भगवन नहीं कह सकते?" गणपति जी नारद जी का हाथ अपनी सूंड से हटा कर बोले
" माफ़ करिए हुजूर...मेरा मतलब भगवन! वो क्या है की कल ही प्रथ्वी के दौरे से वापस आया हूँ ..वहाँ इस शब्द से साहब लोग खुश होते हैं!
अच्छा...हमें तो ये पता ही नहीं था पर हमें तो भगवन ही पसंद है" गणपति जी अब थोड़े शांत हो गए थे
.अभी अभी एक ब्लॉगर मरकर ऊपर आया है !उसने हमें ब्लॉग के बारे में बताया..हमारा ब्लॉग तो होना ही चाहिए !" गणेश जी बोले
जी भगवन..मैं अभी एक कंप्यूटर लाये देता हूँ..नारद जी कहकर उड़ गए कंप्यूटर लाने के लिए!
लीजिये...भगवन का ब्लॉग तैयार हो गया... गणेश जी ने नाम रखा "गणपति का चिटठा"!
ब्लॉगर की आत्मा ने तुंरत ऐतराज किया "नहीं नहीं ये नाम नहीं चलेगा आप भगवन के नाम से ब्लॉग नहीं खोल ककते!
क्यों भाई चिट्ठाकार ..क्यों नहीं खोल सकता? गणपति जी जी को बात कुछ जमी नहीं!
" देखिये क्या है कि अगर आप ये कहकर अपना ब्लॉग बनायेंगे कि मैं तो भगवान गणेश हूँ तो कोई भी नहीं मानेगा..हँसी उडेगी सो अलग, आप चाहे जो नाम रखें माना तो आपको इंसान ही जायेगा तो इससे अच्छा कुछ ढंग का ही नाम रख लें...गणपति थोडा आउटडेटेड सा नहीं लगता?" ब्लॉगर ने सहमती कि प्रत्याशा में नारद जी की ओर देखा!
"बिलकुल ठीक..अब मेरे ही नाम से कोई ब्लॉग है पर कोई ये थोड़े ही मानेगा कि ये मैंने खोला है " नारद जी ने सहमती जताई!
लेकिन मैं तो रोज़ देखता हूँ ..मंदिरों में भक्तों कि भीड़ लगी रहती है...लोग हर कार्य प्रारंभ करने के पूर्व मेरी आराधना करते हैं..इतना तो मानते हैं और तुम कहते हो कि मेरे नाम से ब्लॉग बनाऊंगा तो कोई यकीन नहीं करेगा" गणेश जी फिर से क्रोध में आ गए!
"देखिये भगवान..बुरा मत मानियेगा! कभी किसी भक्त ने आपको पुकारा, आपसे सहायता की आस लगायी तो आप कभी प्रथ्वी पर पधारे? कभी अपनी किसी जादुई शक्ति से किसी मरते के प्राण बचाए, कभी कोई दंगा फसाद रोका? कभी किसी अनाथ बच्चे को चमत्कार से अच्छे घर में पहुंचा पाए? यानी कि आपने अपने प्रकट होने का कोई प्रमाण कभी नहीं दिया तो अचानक ब्लॉग बना लेने से कोई थोडी मानेगा! रही बात पूजा पाठ की तो आप हमारा मुंह न ही खुलवाएं तो अच्छा है...कैसे कैसे पापी आते हैं आपके दर्शन को! राम राम ...कहते भी लज्जा आती है!
"ठीक है ठीक है..अब ज्यादा चपड़ चपड़ न करो ..और श्री राम को न पुकारो अभी....वरना वो कही हमसे पहले ब्लॉग न बना लें" गणपति जी ने ब्लॉगर को घुड़का!
ब्लॉगर चुप हो गया!
लेकिन प्रभु..आप अपने ब्लॉग पर लिखेंगे क्या? ब्लॉगर ने उत्सुकता वश पूछा!
लिखूंगा श्लोक..और क्या! विविधता के लिए कभी अपने जीवन के किस्से भी डाल दूंगा! गणेश जी ने गर्व से कहा!
"हा हा..." ब्लॉगर नासमझी में जोर से हँस पड़ा!
गणेश जी ने कुपित होकर उसे देखा...और गुस्से में श्राप देने के लिए जल उठाया ही था की तभी नारद जी ने स्थिति को संभालते हुए गणपति जी को शांत किया और ब्लॉगर से माफ़ी मंगवाई!
माफ़ कीजिये..दरअसल मैं कहना चाहता था कि आजकल संस्कृत भाषा कोई नहीं पढता और श्लोक तो कैसे भी नहीं पढ़े कोई! दूसरी बात ये कि आपके जीवन के किस्से मसलन आपका सर हाथी का कैसे हुआ,आपने प्रथ्वी की परिक्रमा कार्तिकेय से पहले कैसे पूरी की वगेरह वगेरह घटनाएं उस लोक में सबको पता है बल्कि कहीं आप भूल जाये तो लोग याद दिला देंगे!" ब्लॉगर ने अपना मत रखा!
अरे ,करके देखने में क्या हर्ज़ है? " कहकर गणेश जी ने अपनी पहली पोस्ट का श्री गणेश एक श्लोक से किया! हर १५ मिनिट में पेज रिफ्रेश करके देखते की कितने कमेंट्स आये! सुबह से शाम हो गयी मगर एक भी टिप्पणी प्राप्त नहीं हुई!फिर भी हिम्मत रख के गणपति जी ने उस ब्लॉगर को उनके ब्लॉग से हर ब्लॉग पर टिप्पणी करने के काम में लगाया...एक दिन में करीब १०० टिप्पणी कर डाली मगर देर रात तक कोई टिप्पणी नहीं आई!निराश भाव से गणपति सोने चले गए...सुबह तडके ही नींद खुल गयी...उठते ही सबसे पहले कंप्यूटर खोला...मगर अब भी कोई टिप्पणी नहीं थी!खीजकर पुनः ब्लॉगर को बुलवा भेजा...ब्लॉगर ने पूरी बात सुनी..गहरा दुःख व्यक्त किया! बोला" प्रभु आप थोडा सा लेट हो गए...अगर १० दिन पहले ब्लॉग बना लेते तो शायद कुछ टिप्पणी तो ज़रूर आती...कुछ लोग बिना पढ़े ही सुन्दर सुन्दर टिप्पणी करके ब्लॉगर का हौसला बढ़ने का महान कार्य करते थे मगर कुछ दिनों पहले ही "कुश" नाम के एक ब्लॉगर ने इस प्रकार टिप्पणी करने वालों पर एक पोस्ट लिख डाली...इस के बाद अब बिना पढ़े कोई टिप्पणी नहीं कर रहा है!
आह..फिर क्या फायदा हमारे ब्लॉग बनाने का" गणेश जी दुखी स्वर में बोले!" हमने तो सोचा था कि मतिभ्रष्ट होते इस संसार को थोडा ज्ञान प्रदान करेंगे मगर हमारे श्लोक तो कोई पढना ही नहीं चाहता,हम अभी अपना ब्लॉग नष्ट किये देते हैं" कहकर गणपति जी ने ब्लॉग डिलीट कर दिया!
चूहे को बुलाया और सवार होने लगे....इतने में कुछ याद आया! तुंरत ब्लॉगर को बुलाया और बोले" हे मूर्ख..तूने अट्टहास करके हमारा उपहास उड़ाया था न.. हम तो तभी तुझे श्राप देने वाले थे पर तब तेरी ज़रूरत थी इसलिए मन मसोस कर रह गए..अब नहीं छोडेंगे तुझे" कहकर अपनी अंजुली में जल लेकर थरथर कांपते ब्लॉगर के ऊपर छिड़क कर बोले " जा तू अगले जनम में भी ब्लॉगर बने और तेरे ब्लॉग पर एक भी टिप्पणी न आये"क्षमा प्रभु...मुझे क्षमा कर दो..मुझसे भूल हुई" ब्लॉगर गणेश जी के चरणों में गिर पड़ा!
गणेश जी पसीजे और बोले " पुत्र...मेरा श्राप तो खाली नहीं जायेगा मगर जिस दिन तू दूसरों के ब्लॉग पर दस लाख टिप्पणी कर देगा उस दिन तू मेरे श्राप से मुक्त हो जायेगा" कहकर गणेश जी अपना चूहा दौड़ाते हुआ चले गए...और ब्लॉगर ..उसको उसके दूसरा जन्म लेने की डेट बता दी गयी है...अपनी बारी के इंतज़ार में खाली बैठे बैठे समय का सदुपयोग करते हुए उसने उँगलियों की कुछ एक्सरसाइज़ शुरू कर दी है और विविध टिप्पणियों का एक संग्रह भी तैयार कर लिया है...साथ ही हवा में उँगलियाँ चला चलाकर एक मिनिट में १० टिप्पणी की स्पीड भी प्राप्त कर ली है....भगवन उसकी दस लाख टिप्पणियाँ जल्दी पूर्ण करे!

Tuesday, July 1, 2008

दद्दू...तुम अक्सर याद आते हो


दद्दू... नाम लेते ही बरबस ही चेहरे पर मुस्कराहट आ जाती है!कई लोग जिंदगी में ऐसे मिलते हैं जिन्हें हम कभी भूल नहीं पाते! दद्दू भी उन्ही में से एक हैं....यूं कहने को तो मेरे ड्रायवर थे दद्दू! तीन साल तक मेरी गाडी चलाई उन्होंने! लेकिन ड्रायवर से ज्यादा कुछ थे मेरे लिए! उम्र लगभग ५७ साल, जैसा वो बताते थे..लेकिन लगते ६० के ऊपर ही थे! अक्सर मैं मज़ाक में उनसे कहती " दद्दू ,तुमने गलत उम्र लिखवा दी अपनी मार्कशीट में..सठिया तो पूरे गए हो" दद्दू झेंप जाते" अरे नहीं साहब..सही में ५७ का ही हूँ" हैड कांस्टेबल जगदीश सिंह सिकरवार- यही नाम था दद्दू का लेकिन दुसरे सिपाही उन्हें दद्दू कहकर ही बुलाते और शायद पहले ही दिन से मैंने भी उन्हें दद्दू बुलाना शुरू कर दिया था! मैं नौकरी में आने के बाद से ही अकेली रह रही हूँ....तो ऐसे में अपना पर्सनल स्टाफ ही परिवार जैसा हो जाता है!

जब मैं ग्वालियर गयी थी तो हाथ में केवल एक सूटकेस था!वहाँ जाकर घर का सारा सामान खरीदा...सारा सामान दद्दू के साथ जाकर खरीदती थी!हांलाकि पसंद मेरी ही होती थी मगर फिर भी तसल्ली के लिए दद्दू से पूछती "दद्दू...ये वाला सोफा लूं या वो वाला" ? साहब..दोनों अच्चे लग रहे हैं" नहीं ..एक बताओ" दद्दू सोचते हैं फिर बोलते हैं" वो कत्थई वाला अच्छा लग रहा है" अरे कहाँ दद्दू...ये वुडन कलर का ज्यादा अच्छा है,मैं तो यही लूंगी" मैं ऐसे बोलती जैसे दद्दू ही मुझे सोफा दिलवा रहे हैं! "हाँ..ये ज्यादा अच्छा है..." दद्दू मन में शायद सोचते की अपने ही मन से लेना है तो हमसे काहे पूछ रही हैं!

मैं अक्सर देहात में जाती थी...रास्ते में मोर,ऊँट,हाथी दिखाई देते तो मैं ख़ुशी के मारे दद्दू को भी दिखाती...दद्दू भी एक मुस्कराहट के साथ मेरी ख़ुशी बांटते!कई बार मेरी नज़र नहीं पड़ पाती तो दद्दू खुद मुझे दिखाते " साहब .देखो एक साइकल पर पांच लोग बैठे हैं और सब दूध की केन लिए हैं!" हम दोनों ठठाकर हंस देते! एक बार तो हद हो गयी मेरी गाडी में ही मेरे एस.पी. भी बैठे थे...अचानक एक हाथी को देखकर मैं बेखयाली में चिल्लाई" दद्दू...जल्दी देखो...कितना बड़ा हाथी" दद्दू चुप..एस.पी. ने एक पल मेरी और देखा और फिर मुंह छुपाकर मुस्कुरा दिए!

एक बार रात गश्त से लौट रही थी...सुबह के करीब सादे चार बजे थे .ठंडों के दिन थे तो खासा अँधेरा था! लौटते लौटते मुझमे भी जागने की ताकत नहीं बचती थी! पिछली सीट पर ऊंघने लगती थी! हम लौटे ,दद्दू ने गाडी खड़ी की...मेरी नींद खुली " दद्दू ,ये कहाँ ले आये" मैंने अजनबी जगह को देखकर आश्चर्य से पूछा! दद्दू ने इधर उधर देखा और बोले " अरे साहब..मैंने समझा घर आ गया" दरअसल दद्दू ने गाडी एक अखाडे में ले जाकर खड़ी कर दी थी उनका मासूम सा जवाब था" साहब,अपने घर का और अखाडे का गेट एक जैसा ही तो है"

जिस दिन दद्दू अपने बाल और मूंछे डाई करके आते...उस दिन शर्ट भी इन करके पहनते और अपनी उम्र से सीधे १० साल पीछे चले जाते और मुझे उन्हें छेड़ने का एक और मौका मिल जाता! और दद्दू शरमा के रह जाते! बारिश के दिनों में मेरे लॉन में काफी पानी भर जाता था ,एक दिन ऐसी ही तेज़ बारिश में मैं ढेर सारी कागज़ की नाव बनाकर पानी में पहुंची और सारी नाव एक साथ तैरा दीं.. साथ में अपनी हवाई चप्पलें भी पानी में तैरा दीं! दद्दू देख देख कर मुस्कुरा रहे थे...थोडी देर बाद मैं अन्दर आ गयी और १० मिनिट बाद बाहर झाँककर देखा तो दद्दू एक अखबार की नाव बनाकर पानी में छोड़ रहे थे..एकदम तल्लीन! मैं बाहर नहीं गयी...कहीं उनके भीतर का बच्चा शरमा कर भाग न जाए!

दद्दू बूढे भले ही थे लेकिन थे बहादुर...मुसीबत के वक्त उन्होंने कभी साथ नहीं छोडा...एक बार एक गाँव में हम गांजे की रेड करने गए लेकिन सारे गाँव वाले इकट्ठे हो गए और हमारे ऊपर फायरिंग शुरू कर दी!हम ६ लोग थे...दद्दू खेत के बाहर गाडी में अकेले थे! उनके ऊपर भी अटैक हुआ...सारी गाडी की तोड़ फोड़ कर दी!लेकिन दद्दू गाड़ी छोड़कर नहीं भागे...उन्हें भी हाथ में काफी चोट आई थी! मैंने बाद में पूछा" दद्दू,तुम वहाँ से हट क्यों नहीं गए थे?" साहब .आप भी तो खड़े रहे,मैं कैसे चला जाता" दद्दू का जवाब था! फिर मैं कुछ नहीं बोली!
अभी कुछ दिन पहले ही मेरे एक दोस्त को दद्दू रास्ते में मिल गए....उसने मोबाइल से मेरी बात करायी दद्दू से! शायद अब उन्हें कम सुनाई देने लगा है!मैंने पूछा "दद्दू कैसे हो?" अच्छा हूँ...आजकल कहाँ काम कर रहे हो दद्दू?" बस..साहब बढ़िया हूँ" दद्दू कुछ का कुछ सुन रहे थे!"दद्दू कभी भोपाल आओ" मैंने कहा! दद्दू ने तीसरी बार कहा" बस साहब बढ़िया हूँ!" फिर मैंने फोन रख दिया और एक बार फिर मेरे चेहरे पर मुस्कराहट थी....

Saturday, June 28, 2008

ये भी तो इबादत है....है न?

लोग अक्सर मुझे नास्तिक कहते हैं....क्या ये इबादत नहीं है?


आज की सुबह वाकई जादुई थी
ठंडी हवा ने हौले से
सहलाया मेरे सर को
उठी तो देखा
हर फूल,हर पत्ते पर
चमक रहे थे ओस के मोती
खिलखिलाता हुआ सूरज
छत की मुंडेर पर गाती चिड़िया
मुझे सुप्रभात कह रहे थे...


मैंने खुदा को शुक्रिया कहा
और चाहा कि आज का दिन
बिताऊ खुदा की इबादत में

फिर मैंने...
दूध वाले को एक प्याला चाय पिलाई
एक गुलाब दिया अपनी माँ को
माली काका को भेजा
टिकिट देकर फिल्म देखने
कचरा बीनते एक बच्चे को
खिलाया पिज्जा हट का पिज्जा
गली में घूमते एक नन्हें से पिल्ले को
नहला दिया गरम पानी से

शाम को जब ऊपर निगाह डाली
खुदा बादलों के पीछे से
मुस्कुरा रहा था

शायद खुदा ने मेरी इबादत कुबूल कर ली...

Monday, June 23, 2008

दर्द बांटना बनमाला का ..

पिछली पोस्ट में हमने बताया की किस प्रकार हमने न सिर्फ कविवर "विरही" जी के दर्द को बांटा बल्कि दर्द के नए आयाम भी समझे...तो दर्द बांटने के इसी सिलसिले पर आगे बढ़ते हुए हम कल पहुंचे उनकी प्रेमिका बनमाला के घर...बनमाला को हम उसकी शादी होने के बाद से ही जानते हैं..वो ऐसे कि हम लच्छू कचौडी वाले के बगल वाली गली में रहते हैं और लच्छू के सामने रामा डोसे वाले के पीछे वाली गली में बनमाला की ससुराल है.. तो मोहल्ले पड़ोस के नाते सिर्फ नजरी पहचान है...बातचीत कभी हो न सकी! हाँ..अक्सर ठेले पर डोसा या कचौडी खाते हम कई बार टकराए..पर हम दोनों ही खाने में इतने लीन रहते थे कि मीठी चटनी मांगने या साम्भर में तेज़ नमक की शिकायत करने के अलावा कोई और बात होने की गुंजाइश ही नहीं रहती थी! बनमाला के पति कि साडियों की दुकान है इसलिए वह रोज़ नयी नयी साडियां पहनती है और उसकी हर साडी पर कहीं न कहीं चटनी या साम्भर के दाग भी मिल ही जायेंगे...मोहल्ले में तो चर्चा ये भी है की एक ग्राहक दूकान से साडी खरीद कर ले गयी तो गलती से साम्भर का दाग और खुशबू दोनों साडी में रह गए थे...बनमाला को उसके पति ने बहुत फटकारा था साडी बिना धोये दूकान पर भिजवाने के लिए..

तो साहब ,जैसे ही बनमाला का पति दुकान के लिए रवाना हुआ,हम पहुँच गए बनमाला के घर...पहले तो हमें देखकर वह थोडा चौंकी लेकिन अपने ठेला मित्र को देखकर उसके चेहरे पर एक परिचित मुस्कान भी उभरी! हमें बाकायदा बैठाया...हमने भी ज्यादा टाइम न बर्बाद करते हुए उसे आने का प्रयोजन बताया!
हम कोई बात शुरू करते ,इसके पहले बनमाला फुर्ती से गयी और कुछ चिप्स,मठरी वगेरह ले आई खाने को! कुछ मिनिट को तो चिप्स खाने की करकर ही कमरे में गूंजती रही! हमें गुस्सा आया,हम यहाँ दुःख बांटने आये हैं और ये तो खाने में भिड़ी है!

आप यहाँ खाने में लगी हैं ,उधेर बेचारे विरही जी आपके ग़म में चाँद तारों की ऐसी तैसी किये पड़े हैं !" हमसे अब रहा न गया!
अचानक बनमाला के चेहरे के भाव बदले और कुछ कुछ मीनाकुमारी से मिलते जुलते भाव उसके चेहरे पर छा गए...हमें अच्छा लगा कि चलो दर्द बांटने की गुंजाईश है वरना ठेले पर कचौडी पेलती बनमाला को देखकर दुनिया का बड़े से बड़ा विद्वान् भी यह नहीं कह सकता था कि इसे पिछले दस जन्मों में भी कोई दुःख हुआ होगा!
ये बताओ..तुमने विरही को क्यों छोडा?"
ये तुमसे किसने कहा...? रमेश ने? " बनमाला ने चिप्स का मसाला अपनी साडी के पल्लू से पोंछते हुए कहा!
ये रमेश कौन है?" हम थोडा चकराए!
अरे...तुम्हारे विरही जी का असली नाम रमेश ही तो है...
अच्छा...हमें तो पता ही नहीं था..चलो जानकारी में इजाफा हुआ..." नहीं नहीं..रमेश क्यों कहेंगे...वो तो आज भी आपके प्रेम में डूबे हुए हैं
मैं नहीं डूबी क्या?" बनमाला थोडा बिगड़ी!
नहीं नहीं..मैंने ऐसा नहीं कहा, एक्चुअली आपको इतना खाते देखकर मैं समझा आप बहुत खुश हैं" मैंने स्तिथि स्पष्ट की!
तो क्या मैं अपनी ख़ुशी से खाती हूँ?
तो किसकी ख़ुशी से खाती हैं आप?
वो तो ग़म भुलाने के लिए अपना आप को खाने में व्यस्त रखती हूँ...वरना एक कौर मुंह में डालने का मन नहीं होता!" बनमाला ने एक चिप्स और उठाया!
"धन्य हैं आप..बिना मन के चिप्स के दो पैकेट और पच्चीस तीस मठरी बीस मिनिट में आपने उदरस्थ कर लिए...एक हम हैं कभी बुखार आ जाये और कड़वा मुंह रहे तो कोई माई का लाल हमें एक ब्रेड तक नहीं खिला सकता... " हमने बनमाला की प्रशंसा की!
" अरे..ब्रेड व्रेड तो मैं भी नहीं खा पाती हूँ .वो तो थोडा चटपटा हो तो गले के नीचे चला भी जाता है!
ओह..अब समझे.. उधर कविवर खुद को व्यस्त रखने के लिए मदिरा से लेकर आमरस तक हर पेय पदार्थ पिए जा रहे हैं,इधर बनमाला खाद्य सामग्री से अपना ग़म गलत कर रही हैं...वाह कैमिस्ट्री हो तो ऐसी!
तभी बनमाला ने एक गहरी आह भरी...बिलकुल वैसी ही जैसी कविवर भरते हैं...डर के मारे एक चूहा सोफे के नीचे से निकल कर भागा! सचमुच दोनों का दुःख समान स्तर का था....हमें यकीन हो गया! लगता है ..ये ज्यादा दुखी हो गयी ! हमारा मन ग्लानि से भर उठा!
लगता है...मैंने आपको और दुखी कर दिया!" हमने कहा
" आपने मेरे ज़ख्म उधेड़ दिए....अब चिप्स से काम नहीं चलेगा..चॉकलेट खानी पड़ेगी..मैंने किसी किताब में पढ़ा था कि ज्यादा डिप्रेशन हो तो चॉकलेट खानी चाहिए!" बनमाला ने फिर एक आह भरी!

हमने अपनी जेब टटोली...आज ही दूकान से सौदा लेते वक्त दूकानदार ने एक रूपया खुल्ला न होने के कारण एक पारले की चॉकलेट दे दी थी! हमने तत्काल निकालकर पेश की......चलो , आज किसी की उदासी कम करने में हम काम आये!
बनमाला ने चॉकलेट हाथ में लेते हुए पूछा " कोई किटकैट वगेरह नहीं है क्या?"
आज तो नहीं है...अगली बार आते वक्त ध्यान रखेंगे.." हमने माफ़ी माँगी!
ये बताओ..तुम्हारी और विरही जी की शादी क्यों न हो सकी? किसने अड़ंगा डाला? " हमने थोड़े आवेश में बनमाला से पूछा!
"किसी ने नहीं..." बनमाला चॉकलेट चूसती हुई बोली
मतलब...? फिर आप दोनों ने शादी क्यों नहीं की?
प्यार की खातिर...आपको नहीं पता विरह ही प्रेम की पराकाष्ठा है! बिना दर्द पाए कोई प्रेम पूजा में नहीं बदलता! घरवाले तो तैयार थे...पर हमने त्याग की राह चुनी!" बनमाला भाव विह्वल होते हुए बोली!

क्या...? " हमारा मुंह खुला का खुला रह गया!
हाँ...और इसके अलावा हमारा प्रेम व्यवहारिक भी था...रमेश बेरोजगार थे तब , कैसे शादी कर लेती मैं उनसे और रमेश की भी इच्छा थी की ससुराल से जो दहेज़ मिले उससे कोई धंधा जमाया जाए...मेरे पिता ने तो दहेज़ देने से साफ़ मना कर दिया था....तो हमने प्रेम को विरह में बदल दिया और हमेशा के लिए अमर कर दिया" बनमाला का गला भर आया कहते कहते!
आप ही बताइए...अगर मैंने उनसे शादी कर ली होती तो क्या आज वे इतने बड़े कवि बन पाते?
नहीं बन पाते...!" हमने बेखयाली में जवाब दिया!
अब आप जाइए.. मुझे एक फ़ूड फेस्टिवल में जाना है....मेरी सहेली आती ही होगी!
आपसे बात करके मुझे हल्का महसूस हुआ! आते रहिये" बनमाला ने हमें दरवाज़ा दिखाते हुए कहा!
अभी भी हम थोड़े अवाक से ही थे...
" आपका ग़म तो प्रोपरली बँटा न?" हमें अपनी पड़ी थी!
हाँ ,हाँ...बँटा! अब आप जाओ" बनमाला हमें फुटाने को बेताब दिखी!
हमने नमस्ते बोला और चल दिए.....
वाकई कितना महान काम होता है किसी का दर्द हल्का करना...और फिर ऐसा दर्द जहां जीवन जीने की नयी कला सीखने को मिल जाए...प्रणाम करते हैं हम विरही जी और बनमाला को! अब कम से कम ये फ़िक्र नहीं है...अगर भूल चूक से कभी दिल टूटने के आसार दिखे तो सही फार्मूला मिल गया है..."खाओ पियो,ऐश करो...उदासी भगाओ,सेहत बनाओ" अगर आप में से कभी किसी का दिल चोट खा बैठे तो हमसे संपर्क करे...विरही जी और बनमाला का पता हम बता देंगे...
अच्छा तो अब चलते हैं...अब हमें दर्द बांटने में आनंद आने लगा है...फिर किसी का दर्द बांटा तो आपको अवश्य बताएँगे ...